तुम मेरे सपनों की, सज्जित सौन्दर्य की प्रतिमा हो
मेरे गूढ़ चिंतन की, उक्तियों का सार बन उभरी हो
तुमसे मिलने से पहले, निष्प्राण शब्दों का मेला था
तरंगित हो गये है भाव, शब्दों को अब जीवन मिला
पढकर भाषा तन - मन की, प्रेम प्रसाद ग्रहण किया
किरणों के कलरव में, प्रेम का शास्वत शुभारम्भ हुआ
उपज जाता प्रेम मरुस्थल में भी, यह भी जान लिया
देह प्रेम की कर्म भूमि है, यह मिलकर पहचान लिया
छल नहीं समर्पण का, अधरों से मंत्र मैंने ये फूंक दिया
प्रेम - धर्म और देह - धर्म का अंतर खूब पहचान लिया
शिथिल न होने देना तुम, इस विश्वास के आलिंगन को
प्रेम की इस तूलिका से मुझे, स्पंदन की भाषा रचने दो
मन का भेदी हूँ, स्पर्श से मिलन का आमन्त्रण पढ़ लेता हूँ
कला में निपुण जान, तुमसे पुरस्कृत बार - बार हो जाता हूँ
संयोग नहीं यह प्रिये, मेरी अभिलाषा की तुम ही जननी हो
विस्मय नहीं किंचित, तेरी कल्पना कुंज का मैं ही सारथी हूँ
प्रतिबिम्ब बडथ्वाल, २२ अप्रैल २०२०
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