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रविवार, 22 फ़रवरी 2015

मेला, लेखक और फेसबुक





शब्दों का खेल हो चुका, छपने को बेसब्र अब अक्षर है
लगा है पुस्तक मेला, फेसबुक में भी आ गई बहार है
फोटो की लगी होड़ है, तस्वीरो का लगा गर्म बाज़ार है
प्रकाशक और लेखक की जुगलबंदी बिकने को तैयार है

हर एक लेखक अब सोच रहा, कैसे बेचू मैं अपने विचार
लिखने को लिख दिया, नाम का कैसे करू मैं अब प्रचार
पुस्तक मेले से है लगी आस, बिक जाऊं शायद इस बार
विमोचन का मंच लगा कर, ग्राहक का करता है इंतजार

पहले शब्दऔर भावोको प्रकाशक परख खरीदा करते थे
मिल जाए मौका उन्हें छापने का ऐसी दुआ किया करते थे
आज हर कोई बनकर लेखक, प्रकाशक के पीछे है भाग रहे
छप जाए मेरी भी एक पुस्तक’, काश! सौभाग्य यूं बना रहे

हर कोई जतन करे ऐसा की, अब हो जाए अपना भी बेडापार
ख्यातिप्राप्त कमलकार संग खिंच जाए अपनी भी एक तस्वीर
फेसबुकिया मित्रो से मिलकर प्रतिबिंबबढाते अपना जनाधार
मुफ्त पुस्तको का तौहफा लेकर, दिखलाते अपना बेशुमार प्यार

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015

उसके लिए ...





अहसासों की कमी अब तो हर पल उभरने लगी थी
हाँ उसकी खुशी शायद अब कहीं और बसने लगी थी
हाँ फैसला मेरा था, लेकिन अंतिम मोहर उसकी थी
शायद अपनी खुशी के लिए ये जरुरत भी उसकी थी

मेरी बातो को बातो जब - तब अनसुना कर दिया  
हर उभरते ख्याल को दो शब्द कह कर टाल दिया
उसे न समझ पाने का विष, अब हमने पी लिया
अमृत है उसके लिए मेरा जाना, वक्त ने कह दिया    

कैसा होगा मेरा आज और कल, मैं ये भी जानता नही 
उसके बिन यहाँ और वहाँ, मन मेरा अब लगता नही
खैर ये तो जिंदगी है, मैं सदा गलत रहा और वो सही
खुश रहे वो सदा, शायद अब जिंदगी में फैसले ले सही

हाँ यादो का सिलसिला आज भी साँसे ले रहा है
पुराने अहसास जिन्दा रखे है नया सब टूट रहा है
जानता हूँ बढ़ा हाथ मेरा अब धीरे धीरे छूट रहा है 
शिकायत नही, जो मेरा न था वो ही दूर जा रहा है

दुआओ का पिटारा भेज रहा हूँ आज, केवल उसके लिए
पहले मैं अपना सोचता था, आज सोच रहा हूँ उसके लिए
उससे मैं अलग नही 'प्रतिबिंब', लेकिन दूर जा रहा उसके लिए
हर खुशी मिले उसे, ये मांग रहा आज खुदा से केवल उसके लिए 

गुरुवार, 8 जनवरी 2015

कटघरे में पुरुष




एक अप्रिय घटना घटित होती है कही
एक कन्या, एक युवती या एक महिला
किसी विकृत मानसिकता का शिकार हुई
अब हर अंगुली एक ओर इशारा करने लगी
पुरुष प्रधान समाज की बात यहाँ होने लगी

पुरुष साथ खड़ा हो दुष्कर्म की निंदा करता है
पुरुष साथ खड़े हो हर अपराधी को दुत्कारता है
अपने भावो में लेखो में कविता में आवाज उठाता है
किसी भी हद तक जाने को खुद को आगे रखता है
लेकिन महिला समाज की नज़रो में घृणा का पात्र है

महिलाओ के उग्र रूप में निशाना आप ही बनते है
पिता भाई पति दोस्त जैसे रिश्ते अब कहाँ टिकते है
खुद को अबला कमजोर कह पुरुषो से बदला लेते है
माता पिता पर शंका करते,परिवार को दोषी ठहराते है
अपने घर की परिस्थिति को, समाज की नज़र बताते है

नर नारी का भेद बता खुद को सबसे अलग किया
साथ अब भाता नही अकेले लड़ने का ज़ज्बा पा लिया
खुद का घर संभले नही बाकी सबका ठेका ले लिया
खुद रिश्तो में उलझे, दूसरे का रिश्ता भी बिगाड़ दिया
अपवाद का ले सहारा खुद को मासूम करार दे दिया

तो पुरुष समाज किस बेडी में बंधे है आज तक आप
खुद के परिवार को छोड़ क्यों करते हो घिनौना पाप
क्यों हर महिला को एक ही दिखते अपवाद और आप
साजिश के शिकार तो भी, खड़े होते है कटघरे में आप
अपने गिरेबान में झांको, शुद्धिकरण करो अपना आप

-प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

सोमवार, 5 जनवरी 2015

बैचैन मन'



कुंठित हैं भाव
खुदगर्ज है इन्सान
वक्त करा देता पहचान
कौन दोस्त कौन दुश्मन

परिवर्तित है स्वभाव
स्वार्थ हावी रिश्तो पर
रिश्ते उलझे, बने परिहास
टूटी मर्यादा, कटघरे में अस्तित्व

नासूर बन रहा घाव
जख्म दे लौट गया कोई
टीस रह-रह कर उठती कोई
जख्म हरा कर गया फिर कोई

नि:शब्द है अहसास
कीमत वक्त की शून्य हुई
संवेदना मन की निष्क्रय हुई
बोलते अश्क, दूरियां जवान हुई

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

गुरुवार, 1 जनवरी 2015

आगुन्तक २०१५


गत वर्ष का अंगज है, अब हमारा अंतरतम बन जाएगा 
आंगुतक बनकर आया, अब अंजल बन राह दिखायेगा 
अंकित होगा हर पन्ने पर अब, अंकक सा नज़र आएगा 
अंतभौम सा रोज बन, अंतरग्नि हो उथल पुथल मचाएगा  

अंबर-डंबर सा दिखा , अब वक्त नववर्ष बन कर उभर आया 
अंकुश लगा सकेगा विपदाओ पर, क्या अंतचर जीत जाएगा  
अंजस है 'प्रतिबिंब' इंसान, क्या सफलता में अंतरित हो पायेगा
अंतश्चित है आशंकित मेरा, क्या खुशियों का अंशल बन पाउंगा

करू यही विचार इस नव वर्ष, अंतर्मल से दूषित न हो तन मेरा  
अंतर्धान न हो जाए धर्म मेरा, कर्म का अंतिक सा हो साथ हमारा 
अंतज्योर्ति से रोशन हो मन मेरा, अंजुमन के लिए कुछ कर पाऊं
अंतर्निष्ठ बने हौसला, किस्मत की लड़ाई में अंत्यज न कहलाऊं

-प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

बुधवार, 31 दिसंबर 2014

अलविदा कहना होगा ....



आज तुझसे बिछुड़ना ही होगा
चाह कर भी नही रोक पाऊंगा तुझे
तेरे संग बिताया हर लम्हा
अब याद बन कर रह जाएगा
खुशी और गम को समेटे हुए
बीते हर पल तेरे ही आगोश में
तुझसे लड़ता रहा केवल अपने लिए
अपने हर सपने को पूरा करने की
बेझिझक फरमाइश तुझसे करता रहा
वक्त जैसा बीता वो मेरा ही नसीब था
तूने दिया या लिया ये अपना याराना था

तेरे मेरे प्यार की आख़री रात
आज शोर शराबे में बीत जायेगी
तेरे मेरे प्यार की कहानी
अब कल से अतीत कहलायेगी
अब न कभी तुझसे मिलना होगा
हाँ यादो में बस आना जाना होगा
चल अब मैं भी तुझसे विदा लेता हूँ
हाँ अब तुम्हे अलविदा कहना होगा ....

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

~सवेरा~


तस्वीर क्या बोले समूह में एक चित्र पर मेरे भाव मित्रो के साथ 

शंख ध्वनि का गूंजता मधुर घोष 
प्रभा - रशिम हरती अंधकार दोष

नभ से बिखरता स्वर्णिम प्रकाश 
वर - वधु से सजे धरती व् आकाश

पुण्य प्रभात से सजी हुई मधुर बेला 
इन्द्रधनुषी किरणों सा रंग है फैला 

शाखों पर लगा गहनों का सा मेला
रोमांचित मन झूले सावन सा झूला

सौम्य रूप लिए पूषण की शीतलता
सूर्य की प्रकृति से दिखे सन्निकटता

उदृत हो जब क्षितिज पर रूप बदलता
'प्रतिबिम्बित' होती भानू की चंचलता  


-प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
पूर्व प्रकाशित  http://tasveerkyabole.blogspot.ae/2014/12/4-2014.html

सोमवार, 1 दिसंबर 2014

आइना - ए - रिश्ता



हर रिश्ते की
एक सीमा होती है
हाँ वक्त के साथ
उसमे बदलाव आते है

ये सीमाए
कभी तो खुली होती है
तो कभी बाँध दी जाती है
ये सीमाए
दिल से तय होती है

और ये दिल
जब अपना समझता है
तब सीमाओ की
पाबंदी नही होती है

जीवन में
जब दखल लगता है
तो सीमाए
तय होने लगती है

फिर रिश्तो का
झूठ भी
सेंध मारने लगता है
सच भी
सामने आने लगता है

वैसे
सच रिश्तो का
रिश्ते
मजबूर नही होते
रिश्ते
मजबूर नही करते

रिश्तो में प्रेम
और प्रेम में सीमा
सीमओं में अहसास
अहसासो में घुटन
'प्रतिबिंब' इसी घुटन में
रिश्ते का होता है अंत

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

कल आज



अहसास संग है
साथ कोई नही है
दिल बाते करता है
सुनता अब कोई नहीं है

भावो की कतार है
शब्द खड़े लाचार है
सच अकेला है
झूठा का विस्तार है

आइना दुश्मनों का है
चेहरा उसका अपनों सा है
कदम मंजिल के प्यासे है
पानी मरीचिका सा है

दिल बीमार है
हर कोई बना हकीम है
भूख अब बिकती है
कलम बनी सौदागर है

नर नारी का नारा है
विचारो का उभरता भेद है
धर्म कर्म का अभाव है
संस्कृति संस्कार पर खेद है

रिश्ते पवित्र है
स्वार्थ से प्रताड़ित है
जोड़ना रणनीति है
तोड़ना अब राजनीति है

-प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

सोमवार, 24 नवंबर 2014

सुप्रभात



तुम्हे नींद तो
अच्छी आई होगी
सपनो और एहसासों का
मिलन खूब हुआ होगा
भोर की किरणों से
आँख तुम्हारी खुली होगी
अब सपनो की खोज
और एहसासों को जीना होगा
प्रतिबिंबित होगी हर सोच
जब आशा और आंकक्षा का
हकीकत के धरातल पर मिलन होगा
पथ स्पष्ट और मंजिल निकट
तब जीने का मज़ा दुगना होगा
मिलेगा फिर सुखद एहसास
जब सपना सच्चा और अपना होगा

शुभम 

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
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