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मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

बेखबर अल्फाज़




सूर्य उदय या
सूर्य हुआ अस्त
तस्वीर का रुख
समझ न पाया

लड़खड़ाते से भाव
पनाह ढूँढते है
अक्षर प्रेम के
बिखरे पड़े है

हवा गमो की
आँधी बन आई है
मौसम बेईमान हुआ
पत्ता पत्ता टूटा है

रात दिन एक सा
अंधकार का कहर है
करवट बदलता वक्त
नाराज़ हर पहर है

थमी थमी सी साँसे
बेखबर है अल्फाज़
दुनियां बेसुध 'प्रतिबिंब'
दफन हुए झूठे अहसास

रविवार, 12 अप्रैल 2015

रात बात करती है .....




तू कौन है, जानता नही मन भ्रमित है
तू मौन है, लेकिन मेरा मन विचलित है
तेरे शब्दों के सफर में भाव विस्मित है
अहसासों की तपिश में मन संकुचित है

एक कोमल काया, मायावी जान पड़ती है
एक बेसुध छाया, साथ साथ चल पड़ती है
दौड़ने की चाह, लेकिन साँसे रुक पड़ती है
अहसास ढूँढते छाँव, आह निकल पड़ती है

मेरी तन्हाई, न जाने किस से बात करती है
मेरी तमन्ना, फिर मदहोशी की बात करती है
आस 'प्रतिबिंब',अब खुशियों की बात करती है
कह चुकी शाम बहुत, अब रात बात करती है


-प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

सोमवार, 6 अप्रैल 2015

सुनो ! एक बार कह दो



सुनो ! एक बार कह दो
तुम्हे मेरी अब जरुरत नही
तुम्हारे जीवन में अब मेरा स्थान नही
तुम मेरी हो यह दिखाने की जरुरत नही


सुनो ! एक बार कह दो
तुम्हे मेरी अब जरुरत नही
तुम्हारी जिन्दगी से मैं चला जाऊंगा
जैसे आया था, उसी वीराने मै लौट जाऊंगा

सुनो ! एक बार कह दो
तुम्हे मेरी अब जरुरत नही
केवल तुम्हे याद कर मैं जिन्दा रह लूँगा
तुम खुश हो ये जानकार मैं खुश रह लूँगा

सुनो ! एक बार कह दो
तुम्हे मेरी अब जरुरत नही
मैं अपना प्यार और आँसू छुपा लूँगा
तुम मेरा प्यार हो, खुद से झूठ बोलना सिखा दूंगा 

सुनो ! एक बार कह दो
तुम्हे मेरी अब जरुरत नही
मुझे तुम्हारी परवाह नही, यह सच मैं छुपा लूँगा
तुम किसी और से प्यार करती हो, ये दर्द छुपा लूँगा

सुनो ! एक बार कह दो
तुम्हे मेरी अब जरुरत नही
तुम्हे किसी और की बाँहों में देख, मुँह मोड़ लूँगा
तुम अतीत हो मेरा, ज़माने से ये बात छुपा लूँगा

सुनो ! एक बार कह दो
तुम्हे मेरी अब जरुरत नही
अहसासों संग जी लूँगा, तुम्हे न कोई परेशानी होगी
चला जाऊंगा दूर, तुम्हे न पास होने का अंदेशा होगा

सुनो ! अब मैं जा रहा हूँ
जानता हूँ तुम्हे मेरी अब जरुरत नही
तुम्हारे लिए दुआओ का सिलसिला जारी रहेगा
जिस जहाँ में भी रहूँ बंद आँखों से देखता रहूँगा  

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

मंगलवार, 31 मार्च 2015

कल [ बीता कल ]




गुजर रहा था मैं कल
गुजरे हुए रास्तो की तलाश में
देखा मील के पत्थर अडिग खड़े
अभी भी मंजिल की ओर इशारा कर रहे  
कण कण राहो का मुस्करा रहा था
शायद मुझे देख उसे कुछ याद आ रहा था
अनगिनत चेहरों में मुझे तलाश रहा था  
कभी हंस देते वो पेड़ो के झुरमुट
मुझे देख अचंभित थी वादियाँ
शोर कर रही थी सुप्त नदियाँ
एक साथ सब पूछने लगे
क्यों लौट आये हो, क्यों लौट आये हो
जो जाता है वो आता कहाँ है
बिछड़ो को कोई याद करता कहाँ है
हैरान है परेशान है क्यों लौट आये हो

मन हुआ रुक जाऊं कुछ देर यहाँ
बीता था मेरा हर एक पल जहाँ
लिपट कर रो दूँ राह के हर साथी से
भिगो लू मन मेरा मिलकर अपनों से  
लेकिन लौट चला यह सोचकर  
कि मेरा संसार अब यहाँ है कहाँ
इन सबसे मैं तो आगे निकल आया हूँ
इन सब को इनके हाल पर छोड़ आया हूँ  
अपने सुखद कल के लिए ‘प्रतिबिंब’
इस कल से रिश्ता तोड़ आया हूँ, रिश्ता तोड़ आया हूँ


शनिवार, 28 मार्च 2015

~ नई शुरआत ~



थोडा सा सुकून है.
भीड़ भाड कम है
अब शोर भी कम है
जिसे सुनना चाह रहा
उसकी आवाज़ साफ़ है 
आभासी सड़क पर
अब आवाजाही कम है
कुछ की नाक लम्बी
कुछ की साख ऊँची
कुछ ने हक़ जताया
कुछ ने लकीर खींची
विराम के निर्णय से
कुछ ने राहत पाई होगी
कुछ  सोच रहे  होंगे
जान बची तो लाखो पाए
कहीं अब भी असमंजस है
कहीं पैदा हुआ संशय है 
कही गाँठ खुलने लगी
कहीं गाँठ पड़ने लगी
कुछ अपने जुड़े 'प्रतिबिंब'
कुछ का अब भी इंतज़ार है
फिर से नई एक शुरुआत है

देखेंगे नए सफ़र में क्या खास है   

शुक्रवार, 20 मार्च 2015

~खामोश ज़ज्बात ~




हालात मेरे पक्ष में आज भी नही 
वक्त की अपनी हर चाल सही 
उसे समझने की समझ मुझे नही 
महसूस हुई जो बात वही कही

चुपचाप चलना सीख  लिया 
खामोश उतर देना सीख लिया  
अहसासो से मुंह मोड़ना सीख लिया 
देखो हमने भी वक्त से ये सीख लिया 

महफ़िल में भी अकेले होने लगे 
न चाह कर भी मुस्कारने लगे 
दूरियों को भी हम झुठलाने लगे
इश्क की झूठी कसम खाने लगे   

कसमे वादे भी अब मुंह मोड़ रहे 
खामोश ज़ज्बात भी दम तोड़ रहे 
वक्त के नतीजो पर 'प्रतिबिम्ब' 
हम बेमतलब के अक्षर जोड़ रहे 

शनिवार, 7 मार्च 2015

उस रंग से इस रंग तक .....



तुम्हारे चेहरे पर  
न जाने कितने रंग अब तक
परते बिछाए चिपके थे
न जाने कब
किस किस ने रंग दिया
न जाने कब
किस रंग ने आकर्षित किया

रंगों का काम ही है
आँखों को सुकून देना और
अपने प्रति आकर्षण पैदा करना
कभी ये रंग कभी वो रंग
इन्द्रधनुष से बनकर
आँखों को गुमराह करते है  

हो गई होली
खेल ली रंगों से होली
आखिर ये रंग उतरने ही है
आज नही तो कल  
रंगों का खेल हो चुका अब
असली चेहरा दिखने लगा होगा
देख लीजिए खुलकर ‘प्रतिबिम्ब’ अपना
प्यार का रंग केवल यहीं नज़र आएगा
हाँ ये रंग बिलकुल पक्का है
मन से पूछना बिलकुल सच्चा है
सोच कर देखना
तन मन खुद ही गुलाबी हो जाएगा
शरमा मत जाना

अहसासों के मिलन तक छिपाए रखना   

गुरुवार, 5 मार्च 2015

सुनो





सुनो, जब तुम उदास हो तब मेरे पास रहना
खुशियाँ अपनी, जहाँ मन तुम वहाँ बाँट लेना

सुनो, बुरा वक्त आये तो मुझे याद तुम करना
अच्छे वक्त में जिसे चाहो, शामिल कर लेना

सुनो, प्रेम मेरा झूठा ही समझकर याद रखना
मोहब्बत तुम्हारी जो हो, उनसे ही निभा लेना

सुनो, अकेलेपन में मुझे अपने साथ तुम रखना
साथ हो जब तुम्हारे अपने, तब मुझे भूल जाना

सुनो, किसी आहट पर अब पलट कर मत देखना
है सामने जो तुम्हारे, उसे हाथ बढाकर थाम लेना

सुनो, आती जाती हवाओ से मेरा पता मत पूछना
हर बदलते मौसम में अपना ख्याल तुम रख लेना 

सुनो, जिंदगी को अपनी मुस्कराहट यूं ही देते रहना
भेज रहा हूँ दुआए, इन्हें समेट तुम पास रख लेना


- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

रविवार, 22 फ़रवरी 2015

मेला, लेखक और फेसबुक





शब्दों का खेल हो चुका, छपने को बेसब्र अब अक्षर है
लगा है पुस्तक मेला, फेसबुक में भी आ गई बहार है
फोटो की लगी होड़ है, तस्वीरो का लगा गर्म बाज़ार है
प्रकाशक और लेखक की जुगलबंदी बिकने को तैयार है

हर एक लेखक अब सोच रहा, कैसे बेचू मैं अपने विचार
लिखने को लिख दिया, नाम का कैसे करू मैं अब प्रचार
पुस्तक मेले से है लगी आस, बिक जाऊं शायद इस बार
विमोचन का मंच लगा कर, ग्राहक का करता है इंतजार

पहले शब्दऔर भावोको प्रकाशक परख खरीदा करते थे
मिल जाए मौका उन्हें छापने का ऐसी दुआ किया करते थे
आज हर कोई बनकर लेखक, प्रकाशक के पीछे है भाग रहे
छप जाए मेरी भी एक पुस्तक’, काश! सौभाग्य यूं बना रहे

हर कोई जतन करे ऐसा की, अब हो जाए अपना भी बेडापार
ख्यातिप्राप्त कमलकार संग खिंच जाए अपनी भी एक तस्वीर
फेसबुकिया मित्रो से मिलकर प्रतिबिंबबढाते अपना जनाधार
मुफ्त पुस्तको का तौहफा लेकर, दिखलाते अपना बेशुमार प्यार

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015

उसके लिए ...





अहसासों की कमी अब तो हर पल उभरने लगी थी
हाँ उसकी खुशी शायद अब कहीं और बसने लगी थी
हाँ फैसला मेरा था, लेकिन अंतिम मोहर उसकी थी
शायद अपनी खुशी के लिए ये जरुरत भी उसकी थी

मेरी बातो को बातो जब - तब अनसुना कर दिया  
हर उभरते ख्याल को दो शब्द कह कर टाल दिया
उसे न समझ पाने का विष, अब हमने पी लिया
अमृत है उसके लिए मेरा जाना, वक्त ने कह दिया    

कैसा होगा मेरा आज और कल, मैं ये भी जानता नही 
उसके बिन यहाँ और वहाँ, मन मेरा अब लगता नही
खैर ये तो जिंदगी है, मैं सदा गलत रहा और वो सही
खुश रहे वो सदा, शायद अब जिंदगी में फैसले ले सही

हाँ यादो का सिलसिला आज भी साँसे ले रहा है
पुराने अहसास जिन्दा रखे है नया सब टूट रहा है
जानता हूँ बढ़ा हाथ मेरा अब धीरे धीरे छूट रहा है 
शिकायत नही, जो मेरा न था वो ही दूर जा रहा है

दुआओ का पिटारा भेज रहा हूँ आज, केवल उसके लिए
पहले मैं अपना सोचता था, आज सोच रहा हूँ उसके लिए
उससे मैं अलग नही 'प्रतिबिंब', लेकिन दूर जा रहा उसके लिए
हर खुशी मिले उसे, ये मांग रहा आज खुदा से केवल उसके लिए 
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