मन बहुत उतावला होता है। इसमे न जाने कितने सवाल उठते है या जबाब मिलते है। चाहे उनमे मै स्वयं ही घिरा हूं या फ़िर समाज या देश के प्रति मेरी उदासीनता या फ़िर जिम्मेदारी। आप भी मेरी इस कशमकश के साथी बनिये, साथ चलकर या अपनी प्रतिक्रिया,विचार और राय के साथ्। तेरे मन मे आज क्या है लिख दे "चिन्तन मेरे मन का" के पटल पर यार, हर पल तेरी कशिश का फ़साना हो या फ़िर तेरी यादो का सफ़र मेरे यार।
मंगलवार, 17 मई 2016
रविवार, 8 मई 2016
बच्चा हो जाना चाहता हूँ .....
यूं तो माँ के लिए हर दिन कम है हर शब्द कम है फिर भी कुछ कहना चाहता हूँ
रख कर सर गोदी में, कुछ पल
मैं सोना चाहता हूँ
पाने आशीर्वाद तेरा, चरणों
में सर झुकाना चाहता हूँ
पास रह कर, हर पल
वही वात्सल्य पाना चाहता हूँ
उम्र की परवाह नही, पास
तेरे बच्चा होना चाहता हूँ
बैठकर
पास तेरे, बिछड़े पलों का हिसाब देना चाहता हूँ
रूठे
थे जो पल मुझसे, उनसे तुझे मिलाना चाहता हूँ
सर
पर तेरे हाथो का, वही स्पर्श फिर पाना चाहता हूँ
तोड़
कर खिलौना कोई, तेरे आँचल में छिपना चाहता हूँ
भगवान
का रूप तुझमे, आशीर्वाद तेरा पाना चाहता हूँ
भूल
हुई जो मुझसे कोई, माफी तुझसे मांगना चाहता हूँ
ममता
त्याग की मूरत तू, जीना तुझसे सीखना चाहता हूँ
कर्तव्य
बोध का है स्मरण, लिपट तुझसे कहना चाहता हूँ
वक्त
की अनजानी दूरी को, तेरे समीप लाना चाहता हूँ
मन
के असंख्य पन्नो पर, तेरा नाम लिखना चाहता हूँ
भावो
के ‘प्रतिबिंब’ से उभरी, तस्वीर तेरी बनाना चाहता हूँ
देर
कितनी हो जाए माँ, लौट कर तेरे पास आना चाहता हूँ
-प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
८/५/२०१६
सोमवार, 2 मई 2016
ये आग
ये आग
सदियों से
चली आ रही कहानी है
जंगल तुमको गर्मियों में
एक दिन झुलसना है
पहाड तुमको
हरियाली से
नाता तोड़ना है
और सूना होना है
एक चिंगारी
सैकड़ो एकड़ वनक्षेत्र को
जलाकर राख कर देती है
जंगल में आग लगती है
या फिर लगाईं जाती है
आज़ादी से अब तक
आग रोकने और
त्वरित नियंत्रण में
असफल है व्यवस्था
या है ये कोई षड्यंत्र?
जलस्रोत की कमी से
जंगलो में नमी कम है
कार्बनिक पदार्थ का
ज्वलनशील होना तय है
प्रयावरण पर खतरे का भय है
दावाग्नि में
स्वाहा होती है
अकूत वन सम्पदा और
जैव विविधिता पर
मंडराता है संकट
पारिस्थितिक तंत्र
हो जाता है गड़बड़
विलुप्तप्राय वनस्पतियों और
वन्य जीवो पर होता असर
प्रश्नचिन्ह
लगता इनके अस्तित्व पर
और स्थिति
पहाड़ो के जन जीवन पर
गहरी चोट कर जाती है
इस आग से
उत्पन काला कार्बन
पहुँच हिमालय की निचली श्रृंखलाओं में
विकिरण सोख लेता है
उत्सर्जन कार्बन डाईआक्साइड
और ग्रीनहॉउस गैस का
तापक्रम में वृद्धि कर
अवक्षेपण में बदलाव ला सकता है
और
पिघलते ग्लेशियर खतरा बन
जमी नदियों को प्रभावित कर
परावर्तन क्षमता में बदलाव लाते है
हाँ यह सब सोचकर
हम कितना डरते है
साल दर साल क्षति होती है
फिर भी कुछ नही करते है
पहाड़ और जंगल
मानव रहित हो रहे है
अपने होने की दुहाई दे रहे है
और हम खड़े
सरकार, व्यवस्था को दोषी मान
केवल इंद्र देव को याद् करते है
आज बस इतना ही कहना है
जंगलो से प्रेम करना
हमें फिर से सीखना होगा.
अपनी अगली पीढ़ी की खातिर
वन सम्पदा, वन्य जीवन
और पहाड़ के
जन जीवन की खातिर
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल २/५/२०१६
सोमवार, 25 अप्रैल 2016
चल पड़ा हूँ .....
नव प्रभात में
सपन सलोने
नव प्राण
फूंकती सांस लिए
नव दिन के गौरव
में
नव लक्ष्य का
संकल्प लिए
चल पड़ा हूँ .....
नव प्रभात की ले
किरण
नव चेतना का
आभास लिए
नव संगम तन मन
में
नव सृजन का
अंकुर लिए
चल पड़ा हूँ
.....
नव प्रभात की
स्वर्णिम बेला
नव जन्म सा
उल्लास लिए
नव छंद नव
परिवेश में
नव शक्ति का
संचार लिए
चल पड़ा हूँ ......
नव प्रभात ज्यूं
हरे अंधियारा
नव जीवन में
प्रकाश लिए
नव पुष्प की नव
गंध में
नव शोभ की महक
लिए
चल पड़ा हूँ
.....
नव जागरण की
जला मशाल
नव योजन का
प्रण लिए
नव उदृत नव्य परिभाषा
में
नव समाज का
दृग्विषय लिए
चल पड़ा हूँ .....
नव विचार का
फूक मंत्र
नव कुंज की सुषमा
लिए
नव चिंतन की प्रत्याशा
में
नव प्रीत की रीत
लिए
चल पड़ा हूँ
.....
नव ज्योति का
हुआ उदय
नव परिचय की आस
लिए
नव घोष दिया नविश्ता
में
नव परमतग्राही
सा ध्येय लिए
चल पड़ा हूँ
.....
नव बाधा का कर
संहार
नव मार्ग की
तृष्णा लिए
नव अर्थ के ‘प्रतिबिम्ब’
में
नव आनंद की उमंग
लिए
चल पड़ा हूँ
.....
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल २५/४/२०१६
सोमवार, 11 अप्रैल 2016
मन को सबक ...
जोड़ कर मधुर पल,
आशियाना बना लिया
प्रेम का एक आवरण,
अनजाने ओढ़ लिया
हर एक लम्हे को,
मोहब्बत से जोड़ लिया
किस्मत ने किया अन्याय,
घरौंदा छीन लिया
वक्त बेवक्त याद आया कोई,
शायद यही प्यार
लिख डाले यूं ही कुछ शब्द,
एहसास दिखे लाचार
बेवजह हुई बाते दुश्मनी सी,
बेनतीजा रही तकरार
कर्म से किया न कभी इंकार,
बना नसीब इंतजार
वक्त ने मुझे बार - बार,
हर बार समझाया
लेकिन नियति का मैं मारा,
समझ न पाया
देर सुबेर करता रहा मनमानी,
खुद को सताया
दूर हुई किस्मत 'प्रतिबिंब',
जीवन व्यर्थ गंवाया
-
प्रतिबिम्ब
बड़थ्वाल ११/४/२०१६
मैं और मेरी परछाई
आगे पीछे डोलता मेरा वजूद
कभी लम्बी कभी छोटी
होती मेरी अपनी परछाई
शब्द नही हैं उसके पास
लेकिन सवाल बहुत है
भीड़ में खो जाती है
अकेले में मुझसे
बहुत बात करती है
मेरी परछाई
रोते दर्पण सी
अपने प्रतिबिम्ब को
छलती है
अस्तित्व की तलाश में
कभी रुसवा होती है
कभी मौन होती है
कभी हंसती खिलखिलाती
तन्हाई से मोहब्बत करती है
या फिर
अँधेरे में गुम हो जाती
है
आज मुझे आवाज दे गई
मेरी अपनी ही परछाई
और
सवालों की अनंत धाराएँ
बह निकली होकर दिशाहीन
धैर्य पहचान खोकर
आक्रोश से सांठ गांठ कर
बैठा
कड़वी आवाज बार बार
गर्जन कर रही
मानवता होकर तिरस्कृत
आँचल बेहूदी का ओढ़कर
जहरीले स्वर में
अभिनन्दन कर रही
रिवाज शहर का
ऊँची इमारतों ने
बदल दिया है
झुकना, अदब की रीत
आज दरवाजो में बंद है
भूख सडक पर
बदहवास घूमती है
गरीबी का नग्न तांडव
कैमरों की सुर्खियों में
लम्बी साँसे लेकर
दम तोड़ने को मजबूर
बेखौफ घूमता अपराध
छुपती छुपाती इंसानियत
उजाले में भी अँधेरे जैसा
डर
लडखडाता तंत्र
एक दूजे पर अंगुली उठाते
एक दूजे के बने दुश्मन लोग
वजूद मिटाने पर तुले लोग
संस्कृति और संस्कार
को ठेंगा दिखाते स्वतंत्र
नागरिक
प्रकृति का चेहरा पोतते लोग
खुद के लिए कब्र खोदते लोग
शांति का शील भंग हुआ
माँ का अपमान आम हुआ
जाति धर्म से लदे
कूड़े के ढेर पर
रोटियां राजनीति की
पक रही है
देश की अखंडता पर
जलती लकड़ियाँ फैंकने वाले
आग सेक रहे है
आग पर घी डालती
नामर्दों की एक लम्बी कतार
कांपने लगी मेरी परछाई
पूछ कर कई सवाल
साथ चलने से इंकार करती
लेकिन उसको कोई पहचानता नही
रोती बिलखती
मेरे साथ चलने को मजबूर
मैं और मेरी परछाई
बुधवार, 6 अप्रैल 2016
आ.....
छोड़ पुरानी बात सारी, आ फिर से नई शुरुआत करें
मोहब्बत थी जो दरमियाँ, आ उसे पुन: स्थापित करें
माना गलती किसी की, आ उस त्रुटि को हम क्षमा करें
जो मार्ग हम भटक गये, आ उसका भी परिशोधन करें
जो था अनुचित, आ उसे उचित राह हम प्रदान करें
विश्वास का जो बुझा दिया, आ उसे पुन: प्रज्वलित करें
छाये हैं खामोशी के बादल जो, आ उन्हें हम दूर करें
चलना हमे प्रेम संग, आ उस एहसास का आभास करें
मुरझा गए थे जो एहसास, आ उन्हें फिर सजीव करें
बाकी रह गए जो अरमान, आ उन्हें हम लक्षित करें
बिछड़ कर पाया जो दर्द, आ उसका हम उपचार करें
बन जाये हम मिसाल, आ ऐसा एक दूजे को प्यार करें
चाह तन मन बसने की, आ वो भाव फिर संगठित करें
प्यार एक दूजे का बनकर, आ हम प्रेम का श्रीगणेश करें
- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
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