~सम्पूर्ण~
हाँ ये वही है
निमन्त्रण पाकर जिसका
तन मन अधीर हो उठता
दृढ आलिंगन में समेट जिसे,
स्नेह का उपहार पाता
कल्पनाओं का स्वछन्द विचरण,
मदहोश मुझे कर जाता
हो कर शून्य उसमें,
उमंगो संग मैं यौवन को फिर पाता
हाँ वो ....
सम्पूर्ण प्रेम की परिभाषा बन
अंकुश रहित प्रार्थना सी समर्पित
असंख्य भावों की नदिया बन
मेरे सागर में विलय सी हो जाती
प्रेम का कर शृंगार, रूप रंग का संगीत नाद
सिंचित करती मेरी कामनाओं की तरुणाई
व्याकुल प्राणों का बन विश्राम स्थल
अधरों से वह प्रेम सुधा पिलाती जाती
स्पर्श की हर भाषा से करवा साक्षात्कार
कामनाओं के स्पंदन की बह उठती वसुंधरा
प्रणय बेला में फूक एकात्मा का आत्ममंत्र
संचित तपन वर्षो की ज्यों फिर मिट जाती
समर्पण की छू परकाष्ठा, लज्जा नूर बरसाती
सम्पूर्णता को मुस्कान फिर प्रतिबिम्बित करती
- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल १३/२/२०१९
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