भीड़
भीड़ भी न, भीड़ को ही
आकर्षित करती है
और
पढ़ा लिखा इंसान
भी
जाने अंजाने ही
सही
इस भीड़ का हिस्सा
बन जाता है
और बिना सिर पैर
के
मुद्दे को भी
मुद्दा बना देता है
संवेदनशीलता और
शर्म का
उड़ता मज़ाक, व्यंग्य के नाम पर।
और खारिज हो जाती
है
सारी
मर्यादाएं।
भीड़ में वो
संजीदा इंसान
बेहूदा बात में
भी खुद को
चर्चा मे शामिल
कर लेता है।
आवश्यक बातों पर
भी
उस भीड़ को
खींचना मुश्किल
होता है
क्योंकि भीड़ अभी
भी
उस भीड़ का ही
अनुसरण कर रही है
गलत सही की
परवाह किए
बिना
हाँ, वहाँ
प्रत्युतर भी दे
रही है
शायद पहचान बना
रही है
भीड़ कहो या भेड़
चाल
यहां सबका यही हाल।
खास हो या आम
सब गिन रहे
गुठलियों के दाम
कहीं बिक रहा नाम
कोई हो रहा बदनाम
और तो और
चाहे अनचाहे
भीड़ में ही, स्वयं को पाया
इसलिए दोस्तों
चला आया
इस भीड़ का संदेश,
इस भीड़ के ही नाम
देने।
प्रतिबिम्ब
बड़थ्वाल ११/११/२०२०
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