सो रहा था मां के गर्भ में
सब बातो से अनजान
शायद जानता भी था,
नही कर पाया तब बयान.
खुश था अपनी दुनिया में,
परियो के उस सुंदर संसार में,
सब के चेहरे पर खुशी लाता था,
करता था तब सब से प्यार मैं
ना धर्म की पहचान थी तब मुझे,
ना शत्रुओ का ज्ञान था तब मुझे
आज धर्म ही मेरी पहचान बनी,
ये दुशमनी क्यो सिखाई आपने मुझे?
आंख खुलते ही ये क्या सिखाया आपने,
अपनो से ही बैर सिखाया क्यो आपने ?
हार जीत की कसौटी पर खडा किया,
क्यो अपनो को हराना सिखा दिया आपने?
तब रोता था बस चाह में अपनो की,
ढूढता था अपनो को ललचाई आंखो से
आज हंसना सिखाया आपने अपनो पर,
आज क्यो मै रोडा बनता अपनो के सपनो पर?
कभी सोचता हूं अनजान ही अच्छा था,
दुनिया से जब तक ना ये सब सीखा था,.
आओ शांति - अंहिसा की राह सब चले
द्वेश छोड अब प्रेम की राह हम सब चले
-प्रतिबिम्ब बडथ्वाल
आनंदों हम आनंदों हम , बहुत सुंदर ..
जवाब देंहटाएंएक अच्छी रचना बड्थवालजी ,
जवाब देंहटाएंआज हंसना सिखाया तुमने अपनों पर..अपनों से ही बैर सिखाया क्यों आपने...
जवाब देंहटाएंअगर आप इस कविता से संतुष्ट तो ठीक है- वरना मैं लेख लिख डालूं श्रीयुत बड़थ्वाल जी..?
प्रमोद जी संतुष्टि तो नहीं मिलती....आप लेख लिख दे और यदि इसी ब्लाग पर लिखना चाहते है तो आमंत्रित है आप.
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