मन बहुत उतावला होता है। इसमे न जाने कितने सवाल उठते है या जबाब मिलते है। चाहे उनमे मै स्वयं ही घिरा हूं या फ़िर समाज या देश के प्रति मेरी उदासीनता या फ़िर जिम्मेदारी। आप भी मेरी इस कशमकश के साथी बनिये, साथ चलकर या अपनी प्रतिक्रिया,विचार और राय के साथ्। तेरे मन मे आज क्या है लिख दे "चिन्तन मेरे मन का" के पटल पर यार, हर पल तेरी कशिश का फ़साना हो या फ़िर तेरी यादो का सफ़र मेरे यार।
गुरुवार, 25 अगस्त 2022
रिश्ते और रास्ते
बुधवार, 24 अगस्त 2022
निभाया करो
शनिवार, 20 अगस्त 2022
रोनाल्ड रॉस - उत्तराखण्ड में जन्मे थे नोबल पुरुस्कार विजेता
रोनाल्ड रॉस
आज विश्व मच्छर दिवस है... २० अगस्त १८९७ को ही ब्रिटिश डॉक्टर रोनाल्ड रॉस ने मादा एनाफिलीज मच्छर की खोज की थी, जो मलेरिया का कारण है. यही वजह है कि इस दिन को विश्व मच्छर दिवस (World Mosquito Day ) के रूप में याद किया जाता है. इसलिए रोनाल्ड रॉस को भी याद करना बनता है.
उत्तराखण्ड देवभूमि में जहाँ देवी देवताओं का निवास है वहीँ यहाँ न जाने कितने साहित्यकार, राजनेता, कवि, लेखक, प्रशासक और वैज्ञानिक हुए हैं. १९०२ में नोबल पुरुस्कार विजेता ( चिकित्सा तथा मलेरिया के परजीवी प्लास्मोडियम के जीवन चक्र के अन्वेषण करने वाले) रोनाल्ड रॉस का जन्म भी कुमाऊँ के अल्मोड़ा में, उत्तराखण्ड की इसी धरती पर हुआ था.
बात १८५७ की है. मंगल पांडे द्वारा एक अंग्रेज अधिकारी को गोली का निशाना बना देने के बाद ब्रिटिश साम्राज्य में चारो तरफ भय का माहौल बन गया था. ब्रिटिश अधिकारी मेजर जनरल हियरसी के आदेशानुसार या कहे सलाह अनुसार बहुत से अंग्रेज अधिकारी उत्तराखण्ड की पहाड़ियों - गढ़वाल कुमाऊँ की तरफ चल पड़े थे. सर कैम्पबैल क्लेब्रान्ट रॉस अपनी पत्नी मलिदा चारलोटे एल्डरट के साथ नाव से बनारस पहुंचे. वहां वेश भूषा बदलकर वे मुरादाबाद, चिल्किया रामनगर व् भुजान होते हुए अल्मोड़ा पहुंचे. अल्मोड़ा छावनी में उन्होंने अपना डेरा जमाया. भयंकर गर्मी और ब्रिटिश विरोध की ज्वाला में अंग्रेजो के लिए यह उपयुक्त स्थान था. यूं तो थोमसन हाउस अल्मोड़ा स्वामी विवेकानंद की यादों से जुड़ा है लेकिन कहीं कहीं यह बात भी सामने आई है की यहीं १३ मई १८५७ को रोनाल्ड रॉस का जन्म हुआ. रॉस का बचपन अल्मोड़ा में बीता और दस वर्ष की आयु में उन्हें आगे पढाई हेतु लंदन भेज दिया गया. मेडिकल डिग्री प्राप्त करने के पश्चात् अपनी जन्मभूमि व् भारत से स्नेह के करना वे १८८१ भारत लौट आये. १८८३ में वे एक्टिंग गेरीसन सर्जन आफ बंगलौर बने. यहाँ उन्होंने मलेरिया के मच्छर को कंट्रोल करना व् पानी की ओर उनको सिमित करना जान लिया था. १८८८ में वे पुन इंग्लैण्ड गए और वहां रायल कालिज के सर्जनो व् प्रोफेसरों के साथ उन्होंने जीवाणु विज्ञान का गहन अध्ययन किया. १८८९ में वे पुन: भारत आये.
उन्हें कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) या बॉम्बे (वर्तमान मुम्बई) के बजाय कम प्रतिष्ठित मद्रास प्रेसिडेंसी में काम करने का मौका मिला. वहां उनका ज्यादातर काम मलेरिया पीड़ित सैनिकों का इलाज करना था. क्विनाइन से रोगी ठीक तो हो जाते, लेकिन मलेरिया इतनी तेजी से फैलता कि कई रोगियों को इलाज नहीं मिल पाता और वे मर जाते.
मलेरिया से पीड़ित क्षेत्र सिगुर घाट में अपनी शोध छुट्टियों के दौरान रास को मलेरिया हुआ लेकिन क्विनाइन से उन्होंने अपने को ठीक किया. कोलकता में वैज्ञानिक किशोरी मोहन बन्नोपाध्याय की सहयता से उन्होंने मच्छरों को एकत्र किया. ऐसे ही कुछ नाम उभर कर आते है डॉ रत्न पिल्लई उनके नौकर अब्दुल वहाब व् लक्ष्मण जिन्होंने रोस को अनुसन्धान करने में सहयता की और फर्ज निभाया. २५ मार्च १८९८ में उस मच्छर की खोज की जिस से मलेरिया फैलता था. पच्चीस साल तक भारतीय चिकित्सा सेवा के दोरान अपनी कर्तव्यपरायणता का बखूबी निर्वहन के पश्चात सेवा से त्यागपत्र दे दिया था और १९०२ में उन्हें औषधि विज्ञान के लिए नोबल पुरुस्कार मिला. सन् १९२३ में अल्बर्ट मेडल तथा मैंशन मेडल से भी सम्मानित किया गया था १९२६ में उनके योगदान तथा उपलब्धियों के सम्मान में रॉस संस्थान और अस्पताल स्थापित किया गया.
१६ सितम्बर १९३२ में रोनाल्ड रॉस ने आखरी साँस ली.
रोनाल्ड रॉस का अल्मोड़ा में जन्म और भारत में अनुसन्धान आज कहीं - कहीं पढने को मिलता है. लेकिन मैं समझता हूँ उन के जन्म स्थान अल्मोड़ा व् भारत में उनके अनुसंधान को और विस्तार मिलना चाहिए, लोगो तक पहुंचाना चाहिए.
शनिवार, 6 अगस्त 2022
6 अगस्त - बड़थ्वाल कुटुंब स्थापना दिवस
हर घर झंडा, हर घर तिरंगा को लेकर भी कुटुंब के सदस्य राजेन्द्र भाई ने पहल की और कई सदस्यों ने तिरंगे और अन्य सामान ख़रीदे.
इसके बाद कुटुंब के सभी सदस्यों ने उत्तराखंडी खाने - भात, मिक्स दाल, मिक्स बुझी, रोटी सलाद व् झुंगर की खीर खा कर पुन अधिक संख्या में मिलने का वायदा देकर विदा ली.
इसमें सहयोग कि भूमिका निभाई पंडित विमल प्रसाद बड़थ्वाल जी व् शोभा बड़थ्वाल ने. सभा की अध्यक्षता शंभू प्रसाद बड़थ्वाल जी ने की. इस कार्य कर्म के मंच संचालन का काम डॉ सी एम् बड़थ्वाल जी ने किया. मुख्य प्रवक्ता गोपाल कृष्ण बड़थ्वाल, कैप्टेन सी पी डोबरियाल,डॉ सी एम् बड़थ्वाल,ले. कर्नल आर पी बड़थ्वाल, शंभू प्रसाद बड़थ्वाल आदि ने बड़थ्वाल कुटुंब के उत्थान पर प्रकाश डाला. मुख्य अतिथि रितु खण्डूरी जी ने समाज को जोड़ने की लिए बड़थ्वाल कुटुंब के प्रयास के लिए सभी बड़थ्वाल जनों की प्रशंसा की. साथ ही कर्नल बड़थ्वाल जी के द्वारा डिफेन्स कैरियर अकैडमी कोटद्वार स्टूडेंट्स को आर्मी में भर्ती करने की मुफ्त सेवा की प्रशंसा कीं. इस समारोह मे कुल 70 से ऊपर बड़थ्वाल परिवार के सदस्य ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई.
मंगलवार, 2 अगस्त 2022
गढ़वाली कुमाऊँनी भाषाओं की संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने की मांग तेज
उत्तराखण्ड राज्य में हिन्दी प्रथम व् संस्कृत द्वितीय भाषा का स्थान रखती है. लेकिन भारत के अन्य राज्यों की तरह देव भूमि उत्तराखण्ड की अपनी भाषाएँ हैं. जिसमे मुख्यत: गढ़वाली व् कुमाऊँनी भाषा का अस्तित्व सैकड़ो वर्षो से हैं. गढ़वाली आर्य भाषाओं के साथ ही विकसित हुई लेकिन 11—12वीं सदी में इसने अपना अलग स्वरूप धारण कर लिया था.
डॉ अंकिता आचार्य पाठक ने अपने एक लेख में लिखा है:
“लगभग एक हजार वर्षों से भाषा के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाए रखने वाली गढ़वाली तथा कुमाऊँनी का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है. उल्लेखनीय है कि तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी से पहले सहारनपुर से लेकर हिमाचल प्रदेश तक फैले गढ़वाल राज्य में सरकारी कामकाज के लिए गढ़वाली भाषा का ही प्रयोग होता था. देवप्रयाग मंदिर में महाराज जगत पाल का वर्ष 1335 का दानपत्र लेख, देवलगढ़ में अजयपाल का पंद्रहवीं सदी का लेख, बदरीनाथ आदि स्थानों में मिले शिलालेख और ताम्रपत्र गढ़वाली भाषा के समृद्ध और प्राचीनतम होने के प्रमाण हैं. इसी प्रकार यह भी उल्लेख मिलता है कि लगभग आठवीं से सोलहवीं शताब्दी तक चम्पावत कूर्माचल की राजधानी रहा और कूर्माचली यहां के राजकाज की भाषा थी. कुमाऊं में चंद शासन काल के समय भी कुमाऊँनी राजकाज की भाषा थी. राजाज्ञा कुमाऊँनी में ही ताम्रपत्रों पर लिखी जाती थी. गढ़वाली तथा कुमाऊँनी के ऐतिहासिक महत्व को स्पष्ट करने वाले ऐसे कई उदाहरण हैं.”
जौनसारी भाषा सहित कई और भाषाएँ उत्तराखंड की संस्कृति व् सभ्यता का हिस्सा है पर इनमें साहित्य बहुत कम लिखा गया है या कहें न के बराबर लिखा गया है. उत्तरप्रदेश से अलग होने के पश्चात् यह मांग जोड़ पकड़ने लगी कि उत्तराखण्ड की भाषाओ को भी संविधान की 8 वीं अनुसूची में स्थान मिलना चाहिए. गढ़वाली कुमाऊँनी भाषा में साहित्य व्याकरण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है साथ नए लेखक भी इसमें अब बढ़ - चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं. कुछ लोगों को मानना है कि उत्तराखण्ड की अपनी अलग भाषा व उसकी लिपि हो और वे इसके लिए अपनी और से प्रयास कर रहे हैं. लेकिन अधिकांश साहित्यकार कुमाऊँनी गढ़वाली को उसके मौलिक रूप में उत्तराखण्ड में भाषा के रूप मान्यता देने के पक्षधर है जो कि उचित भी है इतिहास, साहित्य व सांस्कृतिक मान्यता के अनुसार. जिसमें भाषा सहज रूप से अपने क्षेत्रों में विकास भी करेगी और जन मानस की भाषा है भी और बन भी सकेगी. इसके विपरीत कोई खिचड़ी भाषा यदि थोपने का प्रयास हुआ तो अपनी - अपनी भाषा का शब्दकोष का भंडार तहस नहस भी होगा साथ ही गढ़वाली कुमाऊँनी भाषा के आधार, उसकी मौलिकता और मातृभाषा के साथ खिलवाड़ होगा.
भाषा का विकास, उसका सृजन व संवर्धन हमारी प्राथमिकता में होना चाहिए. मेरा मानना है कि केंद्र व राज्य सरकार को शीघ्रातीशीघ्र कुमाऊँनी और गढ़वाली को आधिकारिक दर्जा देना चाहिए और उनके संवर्धन हेतु समुचित प्रबन्ध करने चाहिए.
कई संगठन संविधान की 8वीँ अनुसूची में शामिल करने हेतु कार्य कर रहे हैं. 2012 से दिल्ली में स्थापित संस्था ‘उत्तराखण्ड लोक भाषा साहित्य मंच’ इसमें सबसे प्रमुखता से अपनी भूमिका निभा रहा है. यह मंच 2016 से गढवाली कुमाऊँनी भाषा का शिक्षण ग्रीष्मकालीन कक्षाओं का आयोजन कर रहा है. विगत वर्ष 2018 में दिल्ली एनसीआर में लगभग 22 केन्द्रों में गढ़वाली-कुमाउनी कक्षाओं को आयोजन कर चुका है 2013 से महाकवि कन्हैयालाल डंडरियाल साहित्य सम्मान गढ़वाली के वरिष्ठ कवि एवं साहित्यकारों को प्रदान करता आया है. मंच हर वर्ष साहित्य एवं समाज सेवा आदि कि लिए प्रत्येक चयनित प्रतिभा को 21 हजार रूपये की राशि भी प्रदान करता है साथ समाज के वर्गों व् व्यक्तित्वों को ही आर्थिक सहायता करता है व् सामाजिक मुद्दों को भी जोर शोर से उठाता है. मंच समय-समय पर कई कवि गोष्ठियों, भाषा सेमिनार एवं अन्य साहित्यिक गतिविधियों का आयोजन करता आ रहा है और भाषा आन्दोलन को लेकर अपनी अग्रणी भागीदारी निभा रहा है.
उत्तराखण्ड लोकभाषा मंच भाषा के मानकीकरण को लेकर भी सक्रीय है. भाषा अधिवेशन द्वारा इसकी शुरुआत हो चुकी है. इस वर्ष गढ़वाल भवन दिल्ली, में हुए अधिवेशंन में लगभग उत्तराखण्ड व् दिल्ली एनसीआर के सैकड़ो साहित्यकार सम्मिलित हुए. जहाँ पर शब्दों के मानकीकरण पर चर्चा भी हुई और उन्हें भाषा में अधिकारिक रूप से जोड़ा भी गया. साथ ही 8 वीं अनुसूची में शामिल करने हेतु भारत सरकार को ज्ञापन देने का प्रस्ताव भी पास हुआ. गृह मंत्रालय व् पीएम आफिस में इसे दिया भी जा चुका है.
दिल्ली में उत्तराखण्ड के चुने हुए प्रतिनिधियों को मिलकर, उन्हें संसद में भाषा बनाये जाने हेतु बात रखने एवं प्रयास करने के लिए “उत्तराखण्ड लोकभाषा साहित्य मंच का शिष्टमंडल” लगातार उनसे भेंट कर अपनी आवाज बुलंद कर रहा है. मंच गढ़वाली कुमाऊँनी को भाषा का दर्जा दिलाने हेतु दृढ़संकल्प के साथ प्रयत्नशील भी है.
अभी तक शिष्टमंडल उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री व् सांसद श्री तीरथ सिंह रावत जी, केन्द्रीय रक्षा राज्यमंत्री व सांसद श्री अजय भट्ट जी, सांसद श्री अजय टम्टा जी व भाजपा मिडिया प्रभारी व् राज्य सभा सांसद श्री अनिल बलूनी जी से मिलकर ज्ञापन सौंप चुका है. सभी ने भाषा के लिए की जाने वाले इस पहल के लिए बधाई व् शुभकामनायें दी है साथ ही संसद में इसे रखने का भरोसा भी दिया और इस पर हर रूप से मदद का आश्वासन भी दिया है.
शिष्टमंडल में ‘उत्तराखण्ड लोक भाषा साहित्य मंच’- दिल्ली के संरक्षक व मयूर विहार जिला भाजपा अध्यक्ष डॉ. बिनोद बछेती, वरिष्ठ साहित्यकार श्री रमेश चंद्र घिल्डियाल, श्री दर्शन सिंह रावत, श्री जयपाल सिंह रावत, श्री प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल, श्री रमेश हितैषी, श्री जगमोहन रावत, श्री सुशील बुडाकोटी, श्री अनिल पन्त, श्री भगवती प्रसाद जुयाल, योगाचार्य डॉ. सत्येन्द्र सिंह, व उत्तराखण्ड लोक भाषा साहित्य मंच दिल्ली के संयोजक श्री दिनेश ध्यानी जी की उपस्थिति रही है.
उत्तराखण्ड लोकभाषा साहित्य मंच सभी साहित्यकारों व गढ़वाली कुमाऊँनी भाषा के बोलने वालो को आवाहन देता है कि आइये इस यज्ञ में अपने समय व सहयोग की आहुति अवश्य दें.
जय उत्तराखण्ड ! जय हिन्द !
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
2 अगस्त, 2022
बुधवार, 25 मई 2022
काश....
अपने राष्ट्र का मान - सम्मान जिनको नहीं आता
वो लोग स्वयं को भारत का शहंशाह समझते हैं
चले थे जो भी, जलाने स्वाभिमान मेरे भारत का
इतिहास गवाह है, वो यहाँ पर खुद राख हो गए
है सत्य, सनातन जड़ो को कोई मिटा नहीं सकता
उनके आकाओं को काश ये बात समझी होती
हिंदुस्तान की श्रेष्ठता को आज दुनिया है मानती
सम्मान भारत का मंदबुद्धि “काश” समझ पाती
लोकतंत्र में सार्थक विरोध सही और आवश्यक है
लेकिन राष्ट्रहित जो समझे वही असली नायक है
विरोध व्यक्ति का यहाँ जिनके दिमाग में छाया है
भारतियों ने ही उन्हें बार - बार वोट से समझाया है
राष्ट्र प्रेम में सत्तापक्ष या विपक्ष नहीं है देखा जाता
तिरंगे की आन, बान और शान से है इसका नाता
‘प्रतिबिम्ब’ ने समझा, तुम्हें क्यों समझ नहीं आता
सत्ता क्षणिक, राष्ट्र सर्वोपरि काश वो समझ पाता
सोमवार, 18 अप्रैल 2022
सोमवार, 21 मार्च 2022
तुम .... ( कविता दिवस पर )
हो तुम मेरा प्रारब्ध
कहीं प्रगृहीत5, कहीं तुम उपेक्षित
फिर भी जोश प्रचण्ड, लक्ष्य प्रचोदित6
कहीं पुरुस्कृत, कहीं प्रतिशिष्ट*
मेरे प्रणय:7 की तुम साक्षी
आक्रोश की बनकर प्रणाद:8
प्रतिकोप9 मेरा दर्शाती हो
मेरे अपने विमर्श प्रंगाण में
प्रभुता का तुम भाव लिए हो
तुम प्रत्यय12 तुम ही प्रत्याख्यान13
तुम ही प्रबोध14 तुम ही परम्परा
तुम ही प्रमा15 तुम ही प्रयाणम्16
मेरे शब्द भावों का उपहार हो
मेरी हर प्रार्थना का प्रसाद हो
मेरी प्रेम की तुम प्रतिष्ठा हो
मेरी सोच का प्रधूपित दिया हो
मेरे सपनों में छुपी प्राप्त्याशा17 हो
हाँ तुम “प्रतिबिम्ब” की कविता हो
हाँ तुम ही प्रतिबिम्ब का प्रतिबिम्ब हो
हाँ तुम मेरी कविता हो
(कविता दिवस पर एक भाव – 21 मार्च 2022)
शब्दार्थ:
(
0उर्जा 00 दृश्यमान
, 1संग्रह, 2गुलदस्ता 3उत्तेजित 4ढाला गया
4*उमड़ते आंसू 5स्वीकृत
6निर्धारित *अस्वीकृत 7अभिरुचि 8चीत्कार/क्रंदन,
9क्रोध के प्रति क्रोध 10ख़ुशी 11उपचार 12शपथ
13निराकरण 14जागरण 15प्रत्यक्षज्ञान/ प्रतिबोध 16आरम्भ/शुरू,
17प्राप्त करने की आशा )
रविवार, 30 जनवरी 2022
हमारी संस्कृति
साध्य और साधना से, निरन्तर ये है खिलती जाती
जीवन का सार समझाती जाती, रामायण और गीता
धर्म - अर्थ और काम - मोक्ष, चारों इसकी विशेषता
सर्वभौम है जिसमें धर्म, पंथ करते जिसकी अगुवाई
सनातन धर्म से सुशोभित है, हमारी अपनी संस्कृति
सब धर्मों का आधार भी है, हमारी सनातन संस्कृति
मानसिक ओर सामाजिक गुणों का, बोध है कराती
वेद मूलक हमारी संस्कृति, परमात्मा से हमें मिलवाती
छोड़ मोह पाश्चात्य का, संस्कृति पर अपने अभिमान करें