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गुरुवार, 22 मार्च 2012

निमज्जन हो सुन ....



नि:शब्द होता हूँ जब देखता हूँ नि:प्रभ तुझे
नि:सत्व है जीवन, नि:संकोच कहता हूँ तुझे
नि:स्पंद है चाह, नि:स्पृह है जीवन तेरा
नि:स्व सा हो गया है नवल सा मन तेरा 

नक्तक सा दिखता है, नाचार क्यों विश्वास तेरा 
नि:शस्त्र लगता है तू, नि:सार हर आक्रमण तेरा
नि:प्रयोजन कर्मो से नि:क्षिप्त होता है मान तेरा
नकबानी से डरता है तू, नि:कारण है ये डर तेरा

नि:शल्य नहीं जीवन, बस निर्भय हो पथ पर चल
निकषण से न अधीर हो, नि:क्षोभ हो कर्म करता चल
नि:शोध्य नही कुछ जीवन मे, नि:संकोच मान कर चल
निकुंज सा है ये तेरा संसार, इसे तू निकेत मान कर चल

नकबजन कर देता है नंश जीवन ,इसका तू ध्यान कर
नवागत है हर पल, नगावास सा नाच तू उसके आने पर
नास्तिक नही नि:कपट बन, नि:छल भाव से प्रेम कर
नंदित होगा मन तेरा, नर्मवत मुस्कान ला तू चेहरे पर

नि:स्वार्थ स्नेह को अपना, छोड़ दुश्मनी नि:शेष जीवन में
नि:सीम है मंजिल तेरी, नि:सहाय न समझ इस दुनिया में
ले हाथों मे नवतिका, अब तू नानावर्ण जोड़ इस जीवन में
नवीभूत कर भाव अपने, नलिनी सा खिल इस बगिया में
                                                                            प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

शनिवार, 17 मार्च 2012

एक नज़र आयें.....




माना की
तुम्हारा कद
मुझसे ऊंचा है
प्यार में
ज्ञान में
अनुभव में
विचारो में
सोच में
उम्र में

पर शायद
तुम भूल गए
ईश्वर ने ही
हमें जीवन दिया
तुम्हारा व्यक्तित्व
अलग जरूर है
पर हमारा
दाता एक है
रगो में बहता खून
भी एक है
फिर क्यों दूर
मुझसे रहते हो
फिर क्यों अलग
होने का दिखावा करते हो
जान कर भी
अंजान बनते रहते हो

चलो आज से
हम एक नज़र आयें
एक ही डाल के
फूल बन महक जायेँ

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

सोमवार, 12 मार्च 2012

सत्य



अर्ध सत्य है जीवन,
पूर्ण सत्य है मरण।
सत्य की खोज में,
जीवन गुजर जाता है।
हर पल का संघर्ष,
और मिलती है तो मौत।
आत्मा अजर अमर है,
लेकिन मृत्यु का है खौफ।
योग, ज्ञान और ध्यान से,
शांति की मिले अनुभूति।
दया, धर्म और कर्म से,
होता सत्य का मार्ग प्रसस्त।
सत्य के आचरण से
शुद्ध होती है अपनी आत्मा।
प्राण तो अमृत स्वरूप है और
आत्मा सत्य से आच्छादित है।
झूठ का कोई आकार नही
सत्य तो साक्षात है साकार है।
मन के चिंतन से ही,
मिलता है आत्मा को प्रकाश।
देह से आत्मा निकले जब,
मिले परमात्मा से आत्मा तब।
                                                                     प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल  

मंगलवार, 6 मार्च 2012

पिया संग होली .....



पिया के रंग मे रंगने लगी
होली का रंग मोहे यूं भाये रे
पिया ज्यों रंग लगाते जाये
तन मोरा गुलाल हुआ जाये रे

रंग बहुतेरे पिया ने दिखाये
मोहे तो लाल गुलाल भाये रे
शर्म से गाल लाल हुये जाये
तन मोरा गुलाल हुआ जाये रे

मारी जो पिचकारी पिया ने
तन मन मोरा भिगो गयो रे
अंग अंग मोरा बहका जाये
तन मोरा गुलाल हुआ जाये रे

पिया जो ओझल हुये नज़रो से
दिल मोरा ढूंढ उन्हे घबराए रे
देख उन्हे लज्जा मोहे आये
तन मोरा गुलाल हुआ जाये रे

दूर होने न दूँ पिया को अपने
सोच उन्हे नैनो से रोक लिया रे
फिर हुई जो नैनो से बतिया
तन मोरा गुलाल हुआ जाये रे

पिया ने बाहों मे जो भर लिया  
सिमट कर सुध - बुध खो गई रे
प्रेम रंग मे मन खिलता जाये
तन मोरा गुलाल हुआ जाये रे

होली के हर रंग मे रंग गई मैं
पिया संग प्रीत रंग मे रंग गई रे
सांस मे सांस मिलती जाये
तन मोरा गुलाल हुआ जाये रे

- प्रतिबिम्ब बड्थ्वाल

गुरुवार, 12 जनवरी 2012

एक पत्ता





एक पत्ता
अपनी खूबसूरती
पर मचलने लगा
रंग पर इतराने लगा
सोचने लगा
काश मैं भी
यहाँ से निकल
दुनिया के रंग मे घुल जाऊँ

टूटा पत्ता साख से
हवा के साथ चल पड़ा
आज़ाद हुआ कहकर
मुस्कराने लगा
अब पेड़ से
ना कोई बंधन
ना कोई शिकायत

उठते गिरते पड़ते
हवा के थपेड़ो संग
ना जाने कहाँ खो गया
खुद को अकेला पा
उसे अहसास हुआ
अपने अस्तित्व का
सोचने लगा वह
उस साख से फिर
कभी न जुड़ पाएगा

और अब
सूख कर
मिट्टी मे मिल जाएगा
मिट्टी मे मिल जाएगा

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

रविवार, 1 जनवरी 2012

आखिर विदा हो गया






पहले साथ था
उठते बैठते, खाते पीते
हँसते लड़ते, सोते जागते
हर हार मे, हर जीत मे
हर सुख मे, हर दुख मे
रात के अंधेरे मे, सुबह की किरणों मे
दिन के उजाले मे, सांझ के ढलने मे

कितनी बार रोकना चाहा
खुशी को,
जाने वाले को
जीत को,
प्रेम के पलो को
पर हर बार नाकाम रहा

कितनी बार बदलना चाहा
कुछ फैसलों को
कुछ लम्हों को
बहुत सी घटनाओं को
बहुत सी समस्याओं को
लेकिन टस से मस न हुआ

और अब खुद ही
हमसे अलविदा कह गया
केवल याद बन कर रहेगा
खोया पाया के सवाल बनकर
वक्त के हाथो फिर से सौंपकर

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल   [०१ / ०१ / २०१२]

बुधवार, 21 दिसंबर 2011



एक सच येसा भी ......

वक्त की चादर ओढ़, बूढ़ा हो चला तन
कर्म धर्म की लाठी ले, चलता रहा तन
आशाओं का दीप जला, जलता रहा मन
अरमानों का घोट गला, पिस्ता रहा मन

सपने बनते टूटते रहे, चाह पलती रही
अपने पराए हुये, आँख बस तकती रही
दिलो दिमाग में, सोच तांडव करती रही          
कभी सुध कभी बेसुध, सांस चलती रही
     
एक जीत मे, भीड़ हर पल बढ़ती रही
एक हार मे, भीड़ हर पल घटती रही
खुशियाँ किस्मत की, किताब पढ़ती रही
हर पन्ने पर ,दुख के निशान लगाती रही

कितना सुलझाया, लेकिन डोर उलझती रही
कितना समझाया ,लेकिन सोच पनपती रही
कितना बनाया,लेकिन राह बिगड़ती रही
कितना जगाया ,लेकिन किस्मत सोती रही

अब भी कहाँ सुधरा है , चिंतित मेरा मन
अब भी करता रहता है, चिंतन मेरा मन
अब भी भूत भविष्य मे है, उलझा मेरा मन
अब भी उलझनों से कहाँ है, सुलझा मेरा मन
                                                                         


                                                                          प्रतिबिंब  बड़थ्वाल 

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

जीवन में.....




जीवन में.....

सपने असज्जित, अयाचित
कहना अनरीत
सलाह अनुचित
परिणाम अपरीक्षित, अस्तमित
जीवन अभ्यसित
संस्कार अनूदित
अपयश अर्जित, अनुगृहीत
प्रश्न अनुतापित
मन अध्यासित,
चाह अस्वीकृत, अमनोनीत
सोच अनारक्षित
भविष्य असुरक्षित
कर्म अपाश्रित, अपमानित
सत्य अनुपस्थित
झूठ अप्रमाणित
दुख अनिवारित, अन्वित
सुख अनुस्वादित
मंजिल असंभावित,
राह अपुष्पित, अवरोधित
दुश्मन अशिक्षित
मंजिल अभीप्सित
मित्र अनगिनत, अलक्षित
     

       फिर भी .....
       भूला अतीत
विचार अभिनंदित
स्नेह अंकित
मैं अनुशासित
सपने अगनित
चला अचिंतित
हौसला अतुलित
........................... और मैं समर्पित

मेरी इस रचना का अंत अनंत है...........

-      प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

बुधवार, 23 नवंबर 2011

……….. इसलिए रुक गया हूँ !!!




अब दिलो दिमाग मे नस्तर चुभने से लगे है
दर्द स्याही न बन जाये इसलिए रुक गया हूँ
आज कुछ लिखते लिखते मैं फिर रुक गया हूँ
कहीं कुछ लिख ही न दूँ इसलिए रुक गया हूँ

उड़ा कर धूल, खुद ही हम मैले हो रहे है
झूठ से नाता, सच से हम बेखबर हो रहे हैं
रात से कर बाते, सुबह से अंजान बन रहे है
राज कहीं खुल न जाये इसलिए रुक गया हूँ

विश्वास अब, दुशमन सा घात लगाए बैठा है
स्नेह दिखावे का, अब तीर सा दिल मे चुभता है
रिश्तो मे नाते अब तिनके से बिखरने लगे है
कहीं रिश्ता टूट न जाए इसलिए रुक सा गया हूँ

शब्द तीखे, आंखो से आँसू बन निकल रहे है
बीते लम्हे, अब रोज याद बनकर गुजर रहे है
उठा हाथ, अब खुदा से फरियाद करने चला हूँ
कहीं दुआ कबूल न हो जाये इसलिए रुक गया हूँ 

संस्कृति का उड़ा मज़ाक, परिवर्तन समझ रहे है
संस्कारो को भूलकर अपनी उन्नति समझ रहे है
स्नेह छोड़ अपनों से, गैरो को अपना समझ रहे है
कहीं कोई भूल कर न बैठू इसलिए रुक गया हूँ

कतर कर पंख अपने, कैसे हम उड़ान भरने चले है
छोड़ कर हौसला, कैसे हम जीत की सोचने लगे है
बदल कर खुद को, कैसे हम आगे चलने लगे है
कहीं कदम डगमगा न जाये इसलिए रुक गया हूँ

जिक्र अपना करूँ, खफ़ा दुनिया वाले हो जाते हैं
बिछा जाल शब्दों का, लोग बेफिक्र हो जाते हैं 
कुछ लिख कर 'प्रतिबिम्ब' मैंने भी सँजो लिया है
कहीं बरसात न हो जायें इसलिये रुक गया हूँ !!!

                   - प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

तारीख़




तारीख़ .........
तारीख़े तो यहाँ रोज़ बदल जाती है   
कुछ हम भूले कुछ याद बन जाती है 
कुछ तारीखे गवाह है इतिहास की
कुछ याद दिलाये हुये परिहास की

तारीख़ पर तारीख़ मिलती है कहीं
तारीख़ पर जीत मिलती है कहीं
जन्मदिन व सालगिरह का है जश्न कहीं
बिछड़ने और मौत का छिपा है गम कहीं

कुछ तारीखों का रखते है शौक यहाँ
कुछ को इन तारीखों से है खौफ यहाँ
तारीख़ का महत्व जतलाये लोग यहाँ
हर पल की कीमत भूले हैं लोग यहाँ

कुछ देते चेतावनी अपशकुन होने का
कुछ देते भरोसा इसमे शकुन होने का
वो खेले खेल तारीखों के आने जाने का
रचते खेल बस जेब मे पैसा आने का

तारीखों का व्यवसाय अब यूं होने लगा है
कैलेंडर की शक्ल भी अब बदलने लगी है
सारे रिश्ते अब ' डे ' बन कर उभरने लगे है 
रिश्ते दिल पर नहीं कागज पर बसने लगे है

तारीख़ तो आगे बढ़ती जाती है
हर दिन कुछ संदेश दे जाती है
बीता वक्त कभी हाथ आता नही 
आज और अभी की सोच है सही

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
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