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मंगलवार, 13 दिसंबर 2016

रुक




रुक .....

रुक, जाते कहाँ हो,
माना कि अब
दिल मुझसे भर गया है
लेकिन कुछ तो
अभी भी मेरे लिए होगा
तेरे दिल में
कुछ अधूरा सा प्यार
या पूरी तरह नफ़रत

कुछ पल ही सही
तू ठहर भी जा
न जाने फिर
कब मुलाक़ात होगी
कब तुमसे फिर बात होगी
ज़रा रुक कुछ कहने सुनने से  
शायद तुम समझ पाओगे
या मैं समझ पाऊंगा
टूटते रिश्ते की हकीकत

मुझमें लाख कमी सही
पर तुझमें भी धैर्य नहीं
साथ न सही
आ किनारा बन जाओ
सूखी दरिया को
एहसासों से लबालब भर दे
हमारे रिश्ते को
इन्हीं किनारों में
समेट ले
बाकी हमारी किस्मत


-          प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

रविवार, 20 नवंबर 2016

कर समर्पण



आनंदित मन से
धर्म कर्म का कर अनुसरण
नित्य पढ़ समझ कर 
शब्द भावो का
कर हृदय में अनुकरण
बना कर उसे संस्कार
पहले राम नही हनुमान बन
कर समर्पण ....

गहराई में उतर
लेकर ज्ञान अर्थ का
भावार्थ का कर संज्ञान
स्वयं में कर रूपांतरित
उलझ नही सुलझ कर
सुन कर नही समझ कर
पहले कृष्ण नही अर्जुन बन
कर समर्पण....

प्रेम का अहोभाव लिए
प्रतिरोध का कर विरोध
शून्य कर चित्त को
चैतन्य को प्राप्त कर
गुजर कर अग्नि से
इर्ष्या का कर अंतिम संस्कार
गुरु नही पहले शिष्य बन
कर समर्पण ....

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल २०/११/२०१६

मंगलवार, 8 नवंबर 2016

भीड़




भीड़ का बोलबाला है 
वरना लगा सब जगह ताला है 
चाहे दुकान हो या रिश्ते 
भीड़ का अनुसरण कर
इंसान बिक जाता है
इंसान बिछ जाता है
इंसान भीड़ का सत्य नही जानता
लेकिन भेड़चाल में कदम मिला
अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है
भीड़ क्या कहती है
भीड़ क्या सुनती है
भीड़ क्या चाहती है
इंसान ने स्वयं को भीड़ के
आकर्षण वाले खूंटे से बाँध लिया है
फिर चाह कर भी मुक्ति नही मिलती
क्योंकि यह खूंटा बाहर ही नही
अंदर भी पेंठ बना लेता है
भीड़ में आप हो,
या भीड़ आपके लिए हो
दोनों ही
एक दूजे के परिचायक नज़र आते है

मैं इसी भीड़ का हिस्सा हूँ
यह जानते हुए भी
कि
भीड़ तो भ्रम है
भीड़ तो मिथ्या है
लेकिन
कल इसी भीड़ को
अपने लिए खड़ा करना चाहता हूँ
अपने साथ देखना चाहता हूँ
बिकता है इंसान
केवल पैसो से नही
भावो और स्वार्थ की
महंगी बोली लगती है यहाँ
टूट जाते है रिश्ते
दल बदलू नेताओं की
आत्मा लिए रिश्ते
बस नेता की तरह
अभिनेता बनना सीख लो
भीड़ को खुद से जोड़ लो .......

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल ८/११/२०१६




गुरुवार, 3 नवंबर 2016

सत्य




यहाँ वहां
शब्दों के जंगल है
भटकता हुआ 
मैं न जाने कब
शब्दों की लटाओं में
उलझता चला गया
शब्दों के जाल
अहंकार के धागे संग
आकांक्षाओं से लिप्त
शायद
सत्य की खोज में.....

सत्य और झूठ को
परिभाषित करते हुए
शब्दों की लम्बी लाइन
अपना अस्तित्व
तलाशते हुए नज़र आई
ज्ञानी का भ्रम पाले
अधूरे को पूर्ण समझ
मन में बसे अन्धकार को
शब्दों की रोशनी में
हटाने का असफल प्रयास

और
स्वार्थ की पराकाष्ठा
का मार्गदर्शन लिए
शब्द
गुनाह करते चले गए
सत्य को
झूठ के तराजू में तोलने
की चेष्ठा करने लगे
और सत्य को
अपने अधिकार में
लाने की सोचने लगे

फिर भी 'सत्य'
कोसो दूर
मैं अज्ञानी समझ न पाया
सत्य विराट होता है
उसे सिद्ध करने के लिए
प्रमाण की नही
समर्पण की आवश्यकता है
शब्दों की नही
मौन की आवश्यकता है
सत्य को पाने के लिए
लड़ना नही पड़ता
कहना नही पड़ता
उससे तो हारना पड़ता है
उसके आगे
समर्पण करना होता है
अपने 'प्रतिबिम्ब' को
पहचानना होता है

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल ३/११/२०१६

सोमवार, 31 अक्टूबर 2016

मिलन




सच है
जैसी हमारी दृष्टी
वैसी ही सृष्टि नज़र आती है
और
प्रकृति में ही छिपा है परमात्मा
उस प्रभु से, उस परमात्मा से
से मिलना हर कोई चाहता है
प्रकृति को छोड़
देवी देवताओं - सबकी चापलूसी करते है
असंख्य मिन्नतें कर
अपने लिए पाना चाहते है
तेज गति से
धन. पद. प्रतिष्ठा पाना चाहते है

हम आज
औपचारिकता पूर्वक
अराधना, पूजा और अर्पण कर
रीति रिवाजो को दोहरा कर
प्रभु से मिलने का
उसकी अनुकम्पा का
सहज मार्ग ढूंढना चाहते है
बस हृदय से आवाज़ नहीं उठती
हृदय से समर्पण नही है
हृदय में सच्चाई नही है
सत्य होना ही समर्पण है
जो हो वही रहना ही सत्य है

हम
अंतकरण में अँधेरा रख
बाहर उजाला करना चाहते है
जबकि
झूठ का तिलिस्म स्वयं को
स्वयं से दूर करता है
समर्पण के लिए
मन में बसे
हर आवरण को हटाना जरुरी है
उसके अंदर छुपे हर मुखौटे को
उतार फेंकना जरुरी है
स्वयं को शून्य कर
पूर्ण तक पहुँचा जा सकता है
सत्य को पाया जा सकता है
फिर परमात्मा यानि अंतरात्मा से
श्रद्धा सहित मिल सकते है
इस मिलन का होना ही
पूर्ण होना है ......


-    प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल ३१/१०/२०१६

बुधवार, 26 अक्टूबर 2016

आओ दीप जलाये ....




डर लगता है अँधेरे से
अंधकार के नाम से ही
हर भय इसमें समाहित हो जाता है 
और अंधेरो से दूरी बनाने में
हम सफल हो जाते है....


रोशनी की आवश्यकता है
तुम्हे भी – मुझे भी
इस अन्धकार से
अंत:करण की कालिमा से
मुक्ति दिलाने के लिए .....

मन की अनुकूलता
सुख का आभास कराती है
और प्रतिकूलता
दुःख के पहाड़ बनाती है...

आलस्य से सराबोर
और भागती जिन्दगी में हम
विकल्प खोजते नज़र आते है
लेकिन अपनी संकल्प शक्ति
हम खोते जा रहे है ...

मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार
पर भी छाया है मायाजाल का अन्धकार
आओ हम
अज्ञान, अधर्म, असत्य, अनीति और अन्याय
का मिटा कर अंधियारा
ज्ञान, धर्म, सत्य, नीति और न्याय
का दीप जलाए ..

कर संकल्प
अपनी कल्पना को साकार बनाये
मन के सच्चे ‘प्रतिबिम्ब’ को
अस्तित्व की कसौटी पर खरा उतारे
आओ निष्ठापूर्वक ये दीप जलाए

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल २६/११/२०१६

रविवार, 23 अक्टूबर 2016

समझौता





एक लम्बे अंतराल के बाद
अंधेरो के आँचल से निकल
सूरज की किरणों से
लेकर चला था
कुछ रोशनी
और
एक योद्धा की  तरह
हौसलों का चौड़ा सीना लिए
कर्तव्य मार्ग पर
नैतिकता के
कठोर धरातल पर
ईमानदारी के पग भरते हुए
लक्ष्य को भेदने का
मूल्यों का अचूक अस्त्र लिए
चल पड़ा था .....

उजाले में भी
किस्मत का पत्थर
ठोकर दे गया
उम्मीद का घड़ा
टूट मिटटी में मिल गया
और
दोष मेरे सर मढ़
अंतर्मन को नियंत्रित कर
मुझे कटघरे में खड़ा कर गया...


मेरे अस्तित्व को
मिटाने की सुपारी लेकर
वक्त
किस्मत की आड़ में छिप गया
और किस्मत
साँसों को उनकी उम्र के सहारे छोड़
हंसती खिलखिलाती
मेरे जख्मो को हरा करती रही
और वेदना चुपचाप
सिसकती रही
आज शिकायत ने
वक्त और किस्मत की
साजिश से समझौता कर लिया


-      प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

बुधवार, 12 अक्टूबर 2016

मेरा वजूद




"मेरा वजूद"


मेरा वजूद
छोटी छोटी बातों से
सांतवे आसमान पर
चढ़ इतराने लगता है
'मैं' का अस्तित्व
इंद्रधुनष बन
अंतर्मन में विराट रूप लिए
अहंकार से वशीभूत होकर
प्रफुल्लित हो जाता है

स्वयं के होने की
मृगतृष्णा लिए आँखे
दूर तक खुद के साम्राज्य की
आकांशा लिए देखती है
और
मस्तिष्क
स्वप्न की बग्घी में बैठ
सोच के घोड़ो
को दौड़ाने लगता है
उसकी तेज रफ़्तार
हवा के वेग को भी
चीरकर उड़ने लगती है

फिर अपने इर्द गिर्द
कुछ न दिखाई  पड़ता है
न कुछ  सुनाई  पड़ता है
चेतना मूर्छित हो
इंसानियत को क़त्ल कर देती है
लेकिन
'मैं' और उसका वजूद
प्रकृति के विरुद्ध
कब तक चल सकता है
यथार्थ के धरातल पर
पाँव रखते ही
ओंधे मुंह गिर जाता है
सिसकता हुआ
वेदना के साथ
अपने 'प्रतिबिम्ब' को
पहचानने का
असफल प्रयास करता 'मेरा वजूद"


-प्रतिबिम्ब  बड़थ्वाल


सोमवार, 10 अक्टूबर 2016

यूं तो ...





यूं तो .....

किया जब इकरार
वो तेरे प्यार का असर था
पा लिया तुझे
ये मेरे प्यार का असर है

यूं तो सारे जहाँ में
मिली है एक तू ही
हूँ तेरी जागीर
अब समेट ले तू ही

मेरी आँखों में
यूं हो तुम बसती
मेरी नज़र को भी
जिसकी खबर नही होती

यूं तो
दिल मेरा सभी से मिलता है
तुझसे मिलने पर
सारा जहाँ न जाने क्यों जलता है 

चेहरा तेरा है
लेकिन ये निगाहें मेरी है
दिल तेरा है
लेकिन इसमें बसी जान मेरी है

मेरी धडकनों में
बैखौफ रिहाइश है तुम्हारी
“प्रतिबिम्ब” समझ रहा
हर इशारे की कहानी तुम्हारी


- प्रतिबिम्ब  बड़थ्वाल 

मंगलवार, 30 अगस्त 2016

तुम मेरा गौरव







क्षितिज पर
लालिमा का बिखराव होते ही 
नयनों के
सपन लोक से बाहर आते ही
हकीकत से
सामना होते ही वो आ जाती है
सूरज की किरणें
उसे सुनहरी ओढ़नी में सजा देती है

और फिर .....
तन मन पर
उसका प्रभाव स्वत: ही नज़र आता है
खिला सा चेहरा उसका
आँखों के आगे तितली बन मंडराता रहता है
हर रंग से सजी
उसकी अदा आस पास रहने को मजबूर करती है
छू लेने की चाह
तमन्ना बन आगोश में भरने को मचल जाती है

देखो न ....
शब्दकोश के सारे शब्द
यहाँ - वहाँ अपनी छाप छोड़ने को व्याकुल है
अर्थ और भाव भी
सब के हृदय पटल पर प्रभावित करने को तैयार है
अमर प्रेम सी प्रियसी बन
तुम मेरे दिन - प्रतिदिन और रोम रोम में व्याप्त हो

हाँ तुम मेरा गौरव, मेरा प्रेम "हिन्दी" हो .......


-      प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
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