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शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

तुमसे मिलकर



हृदयगति का वेग थमता नहीं, जब सामने तुम होती हो
प्रेम अगन की अग्नि का तुम, तब अंगार बन सुलगती हो

अहसासों का भंवर अंगड़ाई लेकर, आगोश में भर लेता है
काव्य स्पंदन का बढ़ता जाता है, तन - मन तब सह लेता है

सूखे अधरों की लालसा, कर अमृत पान अंगित कर लेती है 
अथाह सागर प्रेम का बहकर, एक दूजे में विलय कर जाता है

तृप्त हो ज्यों आत्मा तब, तन – मन, सम्पूर्णता को पाता है
खिल उठता मन सुमन सा, “प्रतिबिम्ब” तब महक जाता है

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल, दुबई, यूएई
२८ दिसम्बर २०१९

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2019

सम्पूर्ण


~सम्पूर्ण~

हाँ ये वही है 
निमन्त्रण पाकर जिसका
तन मन अधीर हो उठता 

दृढ आलिंगन में समेट जिसे, 
स्नेह का उपहार पाता

कल्पनाओं का स्वछन्द विचरण, 
मदहोश मुझे कर जाता  

हो कर शून्य उसमें, 
उमंगो संग मैं यौवन को फिर पाता 

हाँ वो ....
सम्पूर्ण प्रेम की परिभाषा बन 
अंकुश रहित प्रार्थना सी समर्पित 

असंख्य भावों की नदिया बन 
मेरे सागर में विलय सी हो जाती 

प्रेम का कर शृंगार, रूप रंग का संगीत नाद
सिंचित करती मेरी कामनाओं की तरुणाई

व्याकुल प्राणों का बन विश्राम स्थल 
अधरों से वह प्रेम सुधा पिलाती जाती 

स्पर्श की हर भाषा से करवा साक्षात्कार 
कामनाओं के स्पंदन की बह उठती वसुंधरा 

प्रणय बेला में फूक एकात्मा का आत्ममंत्र  
संचित तपन वर्षो की ज्यों फिर मिट जाती  

समर्पण की छू परकाष्ठा, लज्जा नूर बरसाती  
सम्पूर्णता को मुस्कान फिर प्रतिबिम्बित करती 

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल १३/२/२०१९

शनिवार, 29 दिसंबर 2018

अंतिम बात ....





कुछ वायदे, कुछ बाते
कुछ कही, कुछ अनकही
कभी रुमानी, कभी तन्हाई
कहीं चंचलता, कहीं व्यवहार
कहीं चोट, कहीं उपचार
बीते कल का हिसाब दे रहा हूँ

कभी कुछ अहसास उभरे थे जो
आज उनसे किनारा कर लिया
जीता था जिस वर्तमान में
वह अब भूतकाल हो गया
जो थी बेकार की बाते
उन यादों को अलविदा कह दिया है

दोष बेहिसाब, कुपित किस्मत 
निभा वफ़ा, गुनाहगार हुआ
दे सम्मान, अपमानित हुआ
कर संचित, ख़ुशी अपनी
वक्त निर्णायक, दिया जो
‘प्रतिबिम्ब’ ने उसे नसीब मान लिया है 

संगठित थे जो शब्दों में
हकीकत में मिलते ही बिखर गए
खुशियों के दौर का
था छोटा सा अंतराल
हर दौर का कर सम्मान
रह तटस्थ अब जीना सीख लिया है

नया साल, नया होगा समा
कहीं तन्हाई, कहीं लोग जमा
साल बदला, जोश होता है
नई उमंग, संकल्प होता है
नया सृजन, विस्तार होता है
आत्मचिंतन से अलग चिंतन होता है

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल २९/१२/२०१८

सोमवार, 3 सितंबर 2018

दर्द की बारिश




झटक कर हाथ मेरा, दे गया आंसू
यूं जिंदगी से अचानक निकल गया कोई
क्षत - विक्षित कर अहसासों को मेरे 
यूं चोट गहरी दिल पर कर गया कोई

साथ नहीं है अब, चेहरा उसका
यूं अपनी तस्वीर से प्रेम सिखा गया कोई
हर चेहरे में चेहरा दिखता उसका
यूं आज भी आँखों में रचा बसा है कोई

जिन होंठो पर, रहता नाम था मेरा
आज उन्हीं होंठो से बेवफा कह गया कोई
पाकर साथ, खुशी मिलती थी जिन्हें
अपनी खुशी के लिए साथ छोड़ गया कोई 

अब बारिश में भीग, जी भर रोता हूँ
दर्द की बारिश में याद करना सिखा गया कोई
हैं इंतजार और मिलन की, यादे बहुत
हर आहट पर मुड़कर देखना सिखा गया कोई

ऋण जख्मो के कभी अदा होते नहीं
जख्म प्रेम के नासूर बनाकर छोड़ गया कोई
मैं रूठना चाहता हूँ जिंदगी से ‘प्रतिबिंब’
लेकिन अब डरता हूँ फिर से न मना ले कोई


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल ३/९/२०१८

मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

~मुड़ कर देखना~




मुड़ कर देखना मेरे लिए, अब गुनाह हो गया
किया था जिस पर भरोसा, वो ही दूर हो गया
हमेशा साथ रहने का, जिसने वादा था किया 
पलक झपकते ही उसने, वो इरादा बदल दिया

लुटा कर जज्बात अपने, मैंने कारवां बना दिया
दिया था साथ अपनों का, अब अकेला रह गया
दुनियां को नसीहत देते - देते, मैं बूढ़ा हो गया
आया वक्त आजमाने का तो, बदनाम हो गया

एकता का मूल मन्त्र, आज फिर हवा हो गया
स्वार्थ का पलड़ा भारी, हर दोस्त ने बता दिया
जीता था जिसका दिल, वो खेल कर चला गया
सिखाया था जिसे प्यार, वो नफरत सिखा गया

थामा था मैंने हाथ जिसका, वो अंगुली उठा गया
चाही थी मैंने जिसकी खुशी, वो मुझे रुला गया
बिठाया जिसे पलकों में, वो नजरो से गिरा गया
मत जी भ्रम में प्रतिबिम्ब’, वो मुझे सिखा गया

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल २४/४/२०१८

रविवार, 15 अप्रैल 2018

झूठा आक्रोश ....



एक घटना घटी नहीं कि
तन मन में रोष
लेख, स्टेट्स और प्रोफाइल में
आक्रोश ऐसा जैसे
क्रोध की ज्वाला में
सारे पापी जल कर
खाक हो जायेंगे
गालियों के ताने बाने सहित
सरकार पर कठोराघात करते
विपक्ष और सम्मानित नागरिक

झूठी जनता
एक वर्ग को कोस कर
मोमबती जला कर
अपनी सेल्फी खिंचवाकर
पीड़ित को भुनाकर
और मृत्या को
श्रद्धासुमन अर्पित कर
कुछ दिन शोर मचाकर
आक्रोश के ठेकेदार
फिर अपनी ही खाल में
छुप कर दुबक कर
बैठ जाते है
अगली घटना के होने तक

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल १५/०४/२०१८

शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018

चक्रव्यूह



प्रतिष्ठा के अहंकार से मुक्त
संस्कार रूपी शिक्षा से लैश
अपने व्यवहार का कवच पहन
कलम का निर्भीक अस्त्र उठा
वाणी का अचूक शस्त्र ले कर
चला था अपनों की  तलाश में

कुछ ही दूर पर अपनों का शिविर
जैसे मेरा ही इंतजार उनको था
नए नियमों का उल्लेख करते 
सैकड़ों  परिचित अपरिचित चेहरे 
सबके उठे हाथ और बंद मुट्ठी
कुछ ही क्षणों में कारवां बन गया

भीड़ थी, जिसे कारवां समझ लिया
किसी आवाज़ पर मुड़ने वाले चेहरे
पता नही कब रास्ता भटक बिछड़ गए 
जो बचे अपने थे, शायद जख्मों को खुरेदने 
प्रेम का जहर पिला, बगल में छुरी लेकर
मैं मोह जाल में फंस, उफ़ भी न कर सका 

मैं अभिमन्यु !!! रिश्तों के चक्रव्यूह का
स्नेह, आदर और विश्वास का मुखौटा पहने
अपने ही लोगो से - पराजित अभिमन्यु !
काश ‘प्रतिबिम्ब’, अभिमन्यु की तरह ही
गर्भ में ही इस चक्रव्यूह का रहस्य जान लेता
तो आज मुझे कदापि इतना दुःख नहीं होता

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल २३/०२/२०१८

शनिवार, 10 फ़रवरी 2018

~प्ले योर शॉट~



ये क्या जगह है, माय डियर होस्ट
नित नई मिलती व होती जहां पोस्ट
पसंद व टिप्पणी मिलती यहां मोस्ट
फिर भी देखो बना व्यक्तित्व घोस्ट

जहां गलती दाल, यू जस्ट बी दियर
छोड़ो पुराने दोस्त, अब न्यू इज़ बेटर
पकते पकाते रहो, यू जस्ट डोंट केयर
अपना काम निकले, इट्स आल फेयर

कुछ लगते अपने कुछ दिखते फ्रॉड
सच्चे कुछ गुरु समान, विश देम गॉड
कुछ पानी से सरल, कुछ मन से हार्ड
कुछ निभा रहे दुश्मनी, सेव देम लार्ड

यहां तो सभी अपने अपने में है लॉस्ट
बेच रहे हैं सब अपनी सोच के प्लॉट
'प्रतिबिम्ब' यू जस्ट चिल फिकर नॉट
आभासी है दुनिया, जस्ट प्ले योर शॉट


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल १०/२/१८

शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2018

~ऋण चुकाती आस~




वक्त के प्रांगण में
हालात पर दुष्टित नज़र
किस्मत का पहन लिबास 
अपना कहते लेकर खंजर

लेकर चलता कितने मुखौटे
कमजोरी से खेलता इंसान
चक्रव्यूह का सम्पूर्ण ज्ञान
हारती फिर भी मर्यादा

अजब तमाशा दुनिया का
मुस्कराहट आगे नस्तर पीछे
प्रेम दिखावा हत्यारी नियत
क़त्ल का तैयार सामान

क्रोधित होता ऊँचा स्वर
वेदना से होकर लचर
आत्मघात करते नुकीले शब्द
अंतर्मन पर घृणा का घेराव

एक लालसा रोज संवरती
प्रताड़ित होकर रोज जीती
एहसानों का उठाकर बोझ
ऋण चुकाती मरकर आस

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल, ९ फरवरी २०१८

रविवार, 7 जनवरी 2018

खोटा सिक्का


गिरा हुआ था
एक सिक्का समझ
रख लिया उसने अपने पास
बतलाया
कहाँ से आया क्यों आया
पर इस सिक्के पर
दिल उनका आ गया
शायद मेरी कहानी में
विरह खूब भाया
नहीं की
उसने अपनी परवाह
और मैंने
हर जगह साथ दिया
उसने रखा
मेरा ध्यान बहुत खास
समझी
मेर्री भूख, मेरी प्यास
उनके लिए
बन गया था मैं खास
किसी और सिक्के को
अपने पास आने न दिया
इस तरह
कुछ साल प्रेम खूब लुटाया
और खूब पाया 

चकाचौंध दुनिया की
चकाचौंध खनक की
आखिर
उनके दिल को छूने लगी
मेरे अस्तित्व पर
संकट के बादल मंडराने लगे
मुझे बहार धकेलने का
रोज बहाना बनता
किसी न किसी न रूप में 
छुटकारा पाने की साजिश मे
उन्हें परेशान पाया 
दूसरे सिक्को की खनक
मुझ तक पहुँचने लगी
आखिर दिल पर पत्थर रख
मुझे ही कहना पड़ा
चलो अलविदा कहो
मुझे फेंक दो
किसी नदी तालाब या समुन्द्र में

बस ‘प्रतिबिम्ब’ जैसे
मेरे कहने का ही इंतजार हो
नजदीक तालाब मे
झट से मुझे फेंक दिया
खोटा सिक्का सा मैं
उनसे अलग हो गया
हाँ कुछ देर रुक कर
मेरे गिरने से
मेरे दर्द को
वो पानी की
केवल छटपाहट समझ
वो देखती रही   ....

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल ७/१/२०१८
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