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मंगलवार, 10 नवंबर 2020

कोरोना से पहले कोरोना के बाद

 


कोरोना से पहले कोरोना के बाद


जिंदगी जैसे भी थी

चल रही थी, कट रही थी

चाहे थी स्वार्थ से भरपूर

किस्से कहानी बनती

वास्तविकता से कहीं दूर

सामाजिक वातावरण मे

राजनीति की भयंकर घुसपैठ संग

अल्प और बहु से जुड़ती संख्या

जिनकी ठेकेदारी जताते

और टकराव कराते चिन्हित चेहरे

राष्ट्रवादी और द्रोहियों

के बनते उभरते समीकरण

देश से, व्यवस्था से

दुश्मनी निभाते सत्ता से वंचित लोग

सब के बीच चल रही थी जिंदगी


चीन से कोरोना ने आकर

इस जिंदगी में कर दी टांग अड़ाई

आपस मे दूरी की खाई बढाई

अनगिनत स्वार्थी मुखौटो पर भी

एक मास्क और चढ़ावाया।

मिलना - जुलना हुआ निषेध

व्यक्ति - व्यक्ति में होने लगा भेद

कोरोना ने फिर भी लगाई सेंध


कोरोना से उठाने फाइदा

राजनीति भी खूब परसाई

कुछ राज्यों ने हराने केंद्र को

बीमारी से कर दी हाथ मिलाई

रोजगारो को खुला छोड़कर

राज्य की अपनी विवशता जतलाई

हर आवाहन का उड़ाकर मजाक

नागरिकों का जीवन रख दिया ताक

फिर भी कालर सबने ऊंचे किए

इस जंग से लड़ने के ज्यों गुर सीख लिए

सबको सता रही केवल आमदनी की चिंता

क्या आम, क्या खास सबका लगा पलीता


सेनीटाइजर, मास्क, गल्वस और जांच किट

इन सब कंपनी की हो गई आमदनी लिफ्ट

लॉकडाउन पर उठाकर सवाल करते बवाल

भयंकर बीमारी में भी कुछ हुये मालामाल

अब जीवन मास्क व कोरोना दोनों संग चलेगा

नियमो का पालन, वैक्सीन तक जारी रहेगा

इस कठिन दौर में मानवता का ध्यान रखना

मिलना - जुलना कम पर प्रेम बनाए रखना।


 


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल १०/११/२०२०


रविवार, 8 नवंबर 2020

तनिक ठहरो!

 
 
अहसासों के पहाड़
चढ़ने से पहले
वास्तविक धरातल पर
उसका तुम निरक्षण कर लो
तनिक ठहरो!
 
संचित है जो भाव
उनका आत्ममंथन कर लो
मर्यादित है जो शब्द
उन शब्दों की पुष्टि कर लो
तनिक ठहरों!
 
संशय और शंका का
तुम पहले निवारण कर लो
देख वैभव छल का
प्रतिस्पर्धा से तुम दूरी कर लो
तनिक ठहरो!
 
प्रेम है जो उभरा
पुन: उसका परीक्षण कर लो
होगी स्वीकृति या अस्वीकृति
इसका अवलोकन कर लो
तनिक ठहरों!
 
आग्रह है या आज्ञा
भेद तुम थोड़ा समझ लो
समर्पण से पहले
निष्ठा को धारण कर लो
फिर मत ठहरो !!!!
 
 
-    प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल ०८/११/२०२०

गुरुवार, 5 नवंबर 2020

मेरी अदालत और फैसला

 


मेरे हृदय और 

मस्तिष्क के पटल पर 

अंकित है 

कई घावों के निशान 

कुछ भरे - भरे से

कुछ अभी भी रिसते हुये 

कुछ नासूर बन 

शिकायत को मजबूर

ना चाहते हुये भी 

पेश कर देता हूँ

कई बार उन्हें

खुद की अदालत में। 

 

खुद की पैरवी करते हुये

दर्जनो केस तारीख पर

लाइन लगाए खड़े है 

निर्णय में कुछ 

आजीवन मुक्ति की सज़ा पा जाते हैं 

कुछ तारीख पा हिस्सा बने रहते हैं  

और कुछ स्मृति से 

मिट जाने की कड़ी सज़ा पा जाते है   

 

स्मृतियों की काल कोठरी में

बंद है इसमें सैकड़ो चेहरे

और

उन चेहरों से सरकते मुखौटे

भावनाओं को कुचलती 

सपनों को तोड़ती हुई

बेजान वेदनाओं और 

यातनाओं की लंबी सूची है

खिलखिलाहट 

और उम्मीद का घुटता गला

छटपटाता तो है पर 

चीख कर भी शोर नहीं कर पाता है 

 

संघर्ष मुझे करना है, जानता हूँ    

वक्त के छिपे प्रहार 

और किस्मत की मार 

करते है मेरे जीवन का शृंगार

यह भी जानता हूँ 

कई चेहरे शामिल है 

मुझे हराने की साजिश में

 

लेकिन उन्हें 

बेनकाब तो करना है

आज नहीं तो कल 

जो खोया है वो पाना है

रुक जाना नहीं, चलना है 

साम, दाम, दंड, भेद 

का कहीं अनुसरण कर 

कर्तव्य, निष्ठा और समर्पण

इस युद्ध में मेरे शस्त्र है 

मंजिल जो मेरी लक्ष्य बनी 

बस मुझे अब वहाँ पहुँचना है 

ये मेरी अपनी अदालत में

दिया गया  

चंद पंक्तियों का फैसला है  

 

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल ०५/११/२०२०



सोमवार, 19 अक्टूबर 2020

~ये कतरनें~

 










वर्षो पहले

जब तब


कुछ देखा

कुछ सोचा

कुछ भाव

कुछ चाह

कुछ खोया

कुछ पाया

कुछ अनकहा


कोई हार

कोई जीत

कोई निवेदन

कोई अवसर

कोई घटना

कोई दुआ

कोई दवा


कभी प्यार

कभी घृणा

कभी रोष

कभी जोश

कभी अंहकार

कभी स्वीकार

कभी आक्रोश


ये कतरनें

ढ़ोती रही

कलम प्रहार

सहती रही

हर खरोच

फिर भी

मेरा लिखा

बन सखा

बन विश्वास

मेरे संग

चलती रही

ये कतरनें


-प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल १९\१०\२०२०


रविवार, 11 अक्टूबर 2020

~ कारण ~

 






तुम और मैं

अकारण नहीं हैं

कारण हैं

एक दूसरे के

जीवन में होने का

सहमति, समझौते और

तालमेल के बीच

कारणों की लंबी भूमिका लिए


हाँ

दखलनन्दाजी

की सीमाओ से परे

कुछ उत्तरदायित्वों के साथ

कर्तव्य की कसौटी पर

परीक्षाएँ देते हुये

क्रमागत होते हुये

कर्मण्यता से

परिपक्वता से

कारण को

कारण बनाते हुये


हाँ

तेरा होना, मेरा होना

तेरा मुझ में होना

मेरा तुझ में होना

प्राथित नहीं है

नियति व प्रारब्ध का

संचित फल है

जो

एक दूजे के लिए प्रारक्षित है

स्वीकृत है तन से मन से

हर परिस्थिति में

चाहे अनुकूल हो या प्रतिकूल हो

कारणों की हर भूमिका का

निर्वाहन ही कारण है

तेरे मेरे होने का।


- प्रतीबिम्ब बड़थ्वाल ११/ १०/२०२०


गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

जीने का राग

 





कामनाओं के जल से नहाकर, प्रेम से शृंगार करती है

बिछता आंचल नेह का, तब आकुलता विश्राम करती है

सौन्दर्य वाटिका सा भ्रमित, पल पल विस्मय से भरती है

प्रेमरस की खुशबू से, अब वो जीने का राग सुनाती है


होकर दृढ़ समर्पित, रोम रोम यौवन का भान कराती है

धधकते अनल ज्वार, को अपने प्रेमतप से बुझा जाती है

हो शरणागत प्रार्थना सी, तन मन में व्याप्त हो जाती है

प्रेमरस की खुशबू से, अब वो जीने का राग सुनाती है


बरसा कर प्रीत अपनी, कभी दूर कहीं गुम हो जाती है

गूंजती है सदा उनकी, तब आँखे देखने को तरस जाती है

प्रणय की कविता बन, क्षितिज सी हर पल मुझे लुभाती है

प्रेमरस की खुशबू से, अब वो जीने का राग सुनाती है


विचलित होते हृदय पर, असंख्य प्रेम पुष्प बरसाती है

टूटती हुई उमंगो पर, तपते अधरों से उतर दे जाती है

शून्य हुए अरमानों को, चाहत का प्राण तत्व दे जाती है

प्रेमरस की खुशबू से, अब वो जीने का राग सुनाती है


व्याकुल प्राणों को आश्रय देती, नीरसता को हर लेती है

गर्म लहू से उठती जो चिंगारी, प्रेम सुधा से बुझा देती है

बन छाँव मरूस्थल में मेरे, अपने उरस्थल से लगा देती है

प्रेमरस की खुशबू से, अब वो जीने का राग सुनाती है


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल, २३ अप्रैल २०२० 


बुधवार, 22 अप्रैल 2020

मैं सारथी





तुम मेरे सपनों की, सज्जित सौन्दर्य की प्रतिमा हो

मेरे गूढ़ चिंतन की, उक्तियों का सार बन उभरी हो

तुमसे मिलने से पहले, निष्प्राण शब्दों का मेला था

तरंगित हो गये है भाव, शब्दों को अब जीवन मिला


पढकर भाषा तन - मन की, प्रेम प्रसाद ग्रहण किया

किरणों के कलरव में, प्रेम का शास्वत शुभारम्भ हुआ

उपज जाता प्रेम मरुस्थल में भी, यह भी जान लिया

देह प्रेम की कर्म भूमि है, यह मिलकर पहचान लिया


छल नहीं समर्पण का, अधरों से मंत्र मैंने ये फूंक दिया

प्रेम - धर्म और देह - धर्म का अंतर खूब पहचान लिया

शिथिल न होने देना तुम, इस विश्वास के आलिंगन को

प्रेम की इस तूलिका से मुझे, स्पंदन की भाषा रचने दो


मन का भेदी हूँ, स्पर्श से मिलन का आमन्त्रण पढ़ लेता हूँ

कला में निपुण जान, तुमसे पुरस्कृत बार - बार हो जाता हूँ

संयोग नहीं यह प्रिये, मेरी अभिलाषा की तुम ही जननी हो

विस्मय नहीं किंचित, तेरी कल्पना कुंज का मैं ही सारथी हूँ


प्रतिबिम्ब बडथ्वाल, २२ अप्रैल २०२०

बुधवार, 15 अप्रैल 2020

~ भीगा कागज ~

      

 



अपने खोए जिनको पाने की खातिर
वो बेरहम बन हमें तन्हा कर चल दिए

दिल से दिल ने पुकारा था उन्हें,
ना पाकर यादों से मिलकर बहुत रोये

दिल की किताब में प्रेम के थे जो पन्ने,
आज वो दर्द की कहानी बन बिखर गए

खामोशी को मेरी अगर वो पहचान पाते
तो आज यूं छुप - छुप कर हम न रोते

बचपन में रोने से सब मिल जाता था
यह सोच उसे पाने की खातिर हम खूब रोये

“प्रतिबिम्ब” प्रेम में भीगा सा कागज हुआ
न कुछ लिख पाया न जलने के काबिल रहा

-प्रतिबिम्ब १५ अप्रैल २०२०


शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

तुमसे मिलकर



हृदयगति का वेग थमता नहीं, जब सामने तुम होती हो
प्रेम अगन की अग्नि का तुम, तब अंगार बन सुलगती हो

अहसासों का भंवर अंगड़ाई लेकर, आगोश में भर लेता है
काव्य स्पंदन का बढ़ता जाता है, तन - मन तब सह लेता है

सूखे अधरों की लालसा, कर अमृत पान अंगित कर लेती है 
अथाह सागर प्रेम का बहकर, एक दूजे में विलय कर जाता है

तृप्त हो ज्यों आत्मा तब, तन – मन, सम्पूर्णता को पाता है
खिल उठता मन सुमन सा, “प्रतिबिम्ब” तब महक जाता है

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल, दुबई, यूएई
२८ दिसम्बर २०१९

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2019

सम्पूर्ण


~सम्पूर्ण~

हाँ ये वही है 
निमन्त्रण पाकर जिसका
तन मन अधीर हो उठता 

दृढ आलिंगन में समेट जिसे, 
स्नेह का उपहार पाता

कल्पनाओं का स्वछन्द विचरण, 
मदहोश मुझे कर जाता  

हो कर शून्य उसमें, 
उमंगो संग मैं यौवन को फिर पाता 

हाँ वो ....
सम्पूर्ण प्रेम की परिभाषा बन 
अंकुश रहित प्रार्थना सी समर्पित 

असंख्य भावों की नदिया बन 
मेरे सागर में विलय सी हो जाती 

प्रेम का कर शृंगार, रूप रंग का संगीत नाद
सिंचित करती मेरी कामनाओं की तरुणाई

व्याकुल प्राणों का बन विश्राम स्थल 
अधरों से वह प्रेम सुधा पिलाती जाती 

स्पर्श की हर भाषा से करवा साक्षात्कार 
कामनाओं के स्पंदन की बह उठती वसुंधरा 

प्रणय बेला में फूक एकात्मा का आत्ममंत्र  
संचित तपन वर्षो की ज्यों फिर मिट जाती  

समर्पण की छू परकाष्ठा, लज्जा नूर बरसाती  
सम्पूर्णता को मुस्कान फिर प्रतिबिम्बित करती 

- प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल १३/२/२०१९

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